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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 1. मनुष्य का व्यवहार विवेकशीलता के आधार पर होता है, जबकि पशु का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों के आधार पर होता है। यह सत्य है कि पशु और मनुष्य - दोनों को आहार चाहिए, किन्तु पशु अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर अपने आहार का चयन करता है, जबकि मनुष्य में विवेकशीलता का गुण होने से वह अपने आहार के चयन में स्वतन्त्र होता है । मनुष्य यह विचार कर सकता है कि उसे कब, कितना और क्या खाना है और क्या नहीं खाना है ? जबकि पशु प्रकृति से निर्धारित है। वह अपनी प्रकृति के आधार पर ही आहार का चयन करता है । पशु में आकार के चयन की यह स्वतंत्रता नहीं होती, जो मनुष्य में है । वह अपनी प्रकृति के आधार पर ही अपने आहार को ग्रहण करता है । इस प्रकार, आहार का प्रेरक - तत्त्व समान होने पर भी आहार के प्रति सामान्य प्राणी - व्यवहार और मानवीय व्यवहार में अंतर होता है। 403 2. मनुष्य की दूसरी विशेषता यह है कि उसमें आत्मसजगता होती है। वह क्या कर रहा है? वह यह जान सकता है, विचार कर सकता है, जबकि पशु में आत्मचेतना न होकर भी वह अपनी प्राणीय - प्रकृति के आधार पर व्यवहार करता है। उसका व्यवहार अंधप्रवृत्ति है, जबकि मनुष्य की प्रवृत्ति में आत्मसजगता होती है। इस प्रकार, प्राणीय - व्यवहार अंधप्रवृत्ति है, जबकि मानवीय - व्यवहार आत्म- सजगता पर आधारित होता है। यदि मनुष्य अपनी आत्म- सजगता और विवेकशीलता का आधार नहीं लेता है, तो उसका आचरण या व्यवहार भी हेय की कोटि में चला जाता है। 3. मनुष्य और पशु - जीवन के अंतर का तीसरा आधार संयम की शक्ति है। मनुष्य द्वारा आत्मनियंत्रण संभव है, परन्तु पशु में आत्मनियंत्रण की प्रवृत्ति नहीं होती है। मनुष्य जीवन-मूल्यों में हेय का त्याग और उपादेय को ग्रहण कर सकता है। वह विवेक और शांति के आधार पर उनके लिए क्या श्रेयः है और क्या श्रेयः नहीं है - यह निर्णय लेने में समर्थ होता है, जबकि पशु में ऐसे संयम के सामर्थ्य का अभाव होता है। इस प्रकार, उपर्युक्त तीनों गुणों के आधार पर मनुष्य लोक - संज्ञा पर विजय प्राप्त कर सकता है और अपने आचार एवं व्यवहार को, उपादेय को प्रासंगिक बना सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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