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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
4. परिग्रह
5. क्रोध
6. मान
7. माया
| लोभमोहनीय का उदय
आसक्तिपूर्वक द्रव्यों का ग्रहण और | | संग्रह
नैत्रों की रुक्षता, दांत और होठों क्रोधवेदनीय का उदय
की फड़कन आदि | मानवेदनीय का उदय | अहंकारपूर्वक शरीर की अकड़न | मायावेदनीय का उदय
संक्लेशपूर्वक मिथ्या भाषण, छिपाने | आदि की क्रिया।
लोभपूर्वक द्रव्य के ग्रहण और लोभवेदनीय का उदय
संग्रह की अभिलाषा। मतिज्ञानावरण और | श्रुतज्ञानावरण का | विशेष अवबोध की क्रिया क्षयोपशम मतिज्ञानावरण और
वरण का | सामान्य अवबोध की क्रिया क्षयोपशम
8. लोभ
9. लोक
10. ओघ
इस आधार पर हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि प्रथम चार संज्ञाएंआहार, भय, मैथुन और परिग्रह तथा चार कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ-ये सब मोहनीय-कर्म के उदय से माने गये हैं। इसमें भी मात्र आहार-संज्ञा क्षुधावेदनीय का उदय माना है, शेष को मोहनीयकर्म के विभिन्न रूपों का ही उदय माना है, अतः हमारा यह निर्णय अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि लोक-संज्ञा वासनात्मक है और ओघ-संज्ञा ज्ञानात्मक है। जैसा कि भाष्य में माना गया है कि हम विशेष अवबोध नहीं कर सकते, पर उसमें विशेष और सामान्य- दोनों कह सकते हैं।
लोक-संज्ञा पर विजय कैसे ?
यह सत्य है कि लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा मानवीय-जीवन में व्यवहार के प्रेरक तत्त्व के रूप में कार्य करती हैं, लेकिन जैसा कि हमने पूर्व में कहा है कि आहार, निद्रा, भय, मैथुन की जो सामान्य प्रवृत्तियां पशुजगत् एवं मनुष्यजगत् में पायी जाती हैं, उनमें मनुष्य की उपादेयता यही है कि वह इन पाशविक-प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हुए विवेक के माध्यम से इन्हें परिशोधित करें, क्योंकि मानवतावादी- दर्शन में मनुष्य एवं पशु- दोनों में निम्न तीन बातों में अंतर माना गया है -
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