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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जैन-परम्परा में ओघ-संज्ञा और लोक-संज्ञा को जिस प्रकार से भिन्न रूप में देखा गया है, उस प्रकार से हम यह मान सकते हैं कि
ओघ-संज्ञा ज्ञानरूप है और लोक-संज्ञा वासनारूप है। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग ओघ-संज्ञा का परिणाम है, जबकि वासनात्मक, अनुभूत्यात्मक संवेदनाएं, लोक-संज्ञा का परिणाम है, क्योंकि ये संज्ञाएं मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती हैं, क्योंकि आगमों के अनुसार लोक-संज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है। साररूप में कहें, तो ओघ–संज्ञा ज्ञानरूप है और लोक-संज्ञा वासनारूप है। एक अन्य अपेक्षा से ऐसा भी माना गया है कि सामान्य प्रवृत्ति ओघ-संज्ञा है और विशेष प्रवृत्ति लोक-संज्ञा है, अतः यह निर्णय ही समुचित प्रतीत होता है कि ओघ–संज्ञा विवेकजन्य है और लोक-संज्ञा वासनाजन्य है, इसलिए जैन आचार्यों ने ओघ–संज्ञा को ग्राह्य और लोक-संज्ञा को त्याज्य माना है।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने संज्ञाओं का जो दशविध विवेचन किया है, उसमें संज्ञाओं को ज्ञानात्मक और · संवेगात्मक -दोनों माना है, किन्तु कौन-सी संज्ञा किस कर्म के उदय से होती है, इसे निम्न रूप में वर्गीकृत किया गया है 874
संज्ञा
कर्म
शारीरिक-मानसिक क्रिया और परिवर्तन
1. आहार
क्षुधावेदनीय का उदय
हाथ से कौर लेना, मुख का संचलन, आहार की खोज आदि
2. भय
भयमोहनीय का उदय
उद्भ्रान्त दृष्टि, वचनविकार, रोमांच | आदि
3. मैथुन
| वेदमोहनीय का उदय
| अंगों का अवलोकन, स्पर्श, कंपन आदि
874 भगवई, आ.महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती, लाडनूं, श.7,उ.8.सू.161, पृ. 382
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