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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
ओघ-संज्ञा और लोक-संज्ञा में भेद -
ओघ–संज्ञा और लोक-संज्ञा के भेद को स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र के भाष्य 866 में आचार्य महाप्रज्ञजी ने स्पष्ट किया है कि
ओघ-संज्ञा का अर्थ दर्शनोपयोग और लोक-संज्ञा का अर्थ ज्ञानोपयोग किया गया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह विचारणीय है कि आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी इसे विमर्शनीय माना है। सिद्धसेन गणी ने 'ओघ-संज्ञा' का अर्थ अनिन्द्रिय-ज्ञान किया है। उनके अनुसार, जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के बिना सामान्य चेतना से होता है, वह ओघ-संज्ञा है। 867 ऐसा ज्ञान पेड़-पौधों और छोटे जीव-जन्तुओं में भी होता है। वे प्रकम्पनों और संवेदनों के आधार पर भावी घटनाओं को भी जान लेते हैं, जबकि लोक-संज्ञा वंश-परम्परा से होनेवाला ज्ञान है। वृत्तिकार ने लिखा है कि ये संज्ञाएं स्पष्ट रूप में पंचेन्द्रिय जीवों में होती हैं, एकेन्द्रिय आदि जीवों में केवल कर्मोदयरूप होती हैं।88 वर्त्तमान वैज्ञानिकों ने यन्त्रों के माध्यम से पेड़-पौधों में इन संज्ञाओं का अध्ययन किया है, इसलिए एकेन्द्रिय आदि जीवों में यह स्पष्ट विज्ञात होती हैं। वस्तुतः,,स्थानांग-टीका869 में ओघसंज्ञा दर्शनोपयोगरूप है तथा लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोगरूप है। आचारांग की टीका 870 , प्रवचनसारोद्धार 871 , प्रशमरति 872 , प्रज्ञापनासूत्र 873 में भी मतिज्ञानावरण-कर्म के क्षयोपशम से शब्दार्थविषयक सामान्य बोध होता है, उसका नाम है - ओघसंज्ञा और विशेष बोध-प्राप्ति को लोक-संज्ञा कहते हैं। आचारांगसूत्र टीका में कहा गया है - पेड़ पर लता का चढ़ना, पेड़ से लिपटना ओघ-संज्ञा का सूचक है। इसे अव्यक्त संज्ञा भी कहते हैं। रात पड़ने पर कमल-पुष्प संकुचित होता है, निःसंतान की गति नहीं होती, मयूरपंख की हवा से गर्भधारण होता है, कुत्ते यक्षरूप हैं, कौए पितामह हैं, ब्राह्मण देव हैं, इत्यादि सब लोक-संज्ञा कही जाती हैं।।
866 भगवतीसूत्र (भगवई) भाग-2, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती लाडनूं श. 7, उ. 8, सू. 161 पृ. 382 867 ओघ :-सामान्य अप्रविभक्तरूपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तिमाश्रीयन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपशम
एव तस्य ज्ञानास्योत्पत्तौ निमित्तम्, यथा वल्ल्यादीनां नीव्राघभिसर्पणज्ञानं न स्पर्शन निमित्तं न मनोनिमित्तमिति, तस्मात् तत्र
मत्यज्ञानावरण-क्षयोपशम एव केवलो निमित्तीक्रियते ओघज्ञानस्य। - तत्त्वार्थसूत्राधिगम भाष्यवृत्ति- 1/14, पृ. 78 868 भगवतीवृत्ति - 7/161 869 स्थानांग टीका
आचारांग की टीका प्रवचनसारोद्धार, 146 द्वार, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 80-81 प्रशमरति, भाग-2, भद्रगुप्तविजयजी, पृ. 285 प्रज्ञापनासूत्र, संज्ञापद, 8/625
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