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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जिसको दुनिया उचित समझती है, उसे उचित मानना चाहिए, क्योंकि जनसामान्य की आवाज ईश्वर की आवाज है, किन्तु जैन-परम्परा इसे मान्य नहीं करती। वह स्पष्ट रूप से कहती है कि लोकसंज्ञा अनुश्रोत है, जो संसार–परिभ्रमण का कारण है। साधक को प्रतिश्रोत का आचरण नहीं करना चाहिए। इस प्रकार, जैन-परम्परा में लोकसंज्ञा को उपेक्षा का विषय माना गया है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध84 में स्पष्ट रूप से कहा गया है -"मुनि को लोकसंज्ञा का त्याग करना चाहिए, क्योंकि यह जनसाधारण की भोग-प्रवृत्ति को सूचित करती है।" लोक और ओघसंज्ञा में समानता और भेद -
ओघ-संज्ञा और लोक-संज्ञा -दोनों ही सामान्य आचार और व्यवहार की वाचक हैं। इस दृष्टि से दोनों में समानता परिलक्षित होती है, किन्तु जैन-परंपरा में ओघ-संज्ञा को सामान्य मुनि-आचार माना गया है, जबकि लोक-संज्ञा को सामान्य प्राणी-व्यवहार का वाचक माना गया है। इस आधार पर विचार करें, तो ओघ-संज्ञा का संबंध आचार के सामान्य सिद्धांत से है, जबकि लोक-संज्ञा का संबंध प्राणी-व्यवहार की सामान्य प्रवृत्तियों से है। ओघ-संज्ञा निवृत्तिपरक सामान्य आचार की बात करती है, वहीं लोक-संज्ञा प्रवृत्तिपरक आचार की बात करती है। जैन-परम्परा में संज्ञाओं के चतुर्विध वर्गीकरण में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह -इन चार संज्ञाओं को प्राणी-व्यवहार का आधार माना गया है। सामान्य दृष्टि से यह चारों संज्ञाएं लोक-संज्ञा में समाहित हो जाती हैं। इसी प्रकार, संज्ञाओं के दशविध वर्गीकरण में जो चार कषाय-रूपी संज्ञा अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ की चर्चा की गई है, वह भी सामान्य दृष्टि से प्राणीय–व्यवहार की प्रेरक होने से लोक-संज्ञा में समाहित हो जाती है। इस प्रकार, लोकसंज्ञा के अन्तर्गत सामान्य प्राणी-व्यवहार के मूल प्रेरक तत्त्व समाहित होते हैं, किन्तु यह लोक-संज्ञा सांसारिक-प्रवृत्ति की वाचक है। जैसा कि कहा गया है -
"आहार निद्रा भय मैथुनं, सामान्यमेतद् पशुभिः नराणाम् । ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो, ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।। 865
864 तं परिणाय मेहावी विइत्ता लोगं, वंता लोगस्सणं से मइमं परक्कमिज्जासित्तिबेमि- आचारांगसूत्र-3/1/178 805 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 163
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