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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ओघसंज्ञा का मूलतः संबंध आचार के सामान्य नियमों से ही है । यद्यपि ओघनियुक्ति की विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें, तो हमें कहना होगा कि साधु के सामान्य आचार-नियमों का संबंध ही ओघ - संज्ञा है ।
जहां तक लोक-संज्ञा का प्रश्न है, वह ओघसंज्ञा की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ की सूचक है। जहां ओघ - संज्ञा साधु के सामान्य आचार की बात करती है, वहां लोक-संज्ञा जनसामान्य की सामान्य प्रवृत्तियों की चर्चा करती है। इस प्रकार, जहां ओघसंज्ञा साधु के सामान्य आचारों की चर्चा करती है, वहीं लोक-संज्ञा जनसामान्य के सामान्य अवबोध और सामान्य प्रवृत्तियों की चर्चा करती है। वह लौकिक - आचरण से संबंधित है, जैसे- श्वान यक्षरूप है, विप्र को देव मानना, कौए को पितामह मानना - ऐसी जो लोक-प्रवृत्तियाँ है, उनकी चर्चा लोक-संज्ञा का विषय है। ‘मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर, रुचिकर पदार्थों को विशेष रूप से जानने की तीव्र अभिलाषा लोक-संज्ञा है । 861 यही बात स्थानांगवृत्ति में भी कही गई है। सामान्यतः, जैन - परम्परा में उन्हीं के आचारों को लोकोत्तर आचार कहा जाता है, पर जन-सामान्य के आचारों को लोकाचार के नाम से जाना जाता है। गतानुगतिक या कालक्रम से चली आई प्रवृत्तियों का अनुसरण करना लोकसंज्ञा है।
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सामान्यतः, जैन - परम्परा में यह माना गया है कि मुनिजनों को लोकसंज्ञा का अनुसरण नहीं करना चाहिए, किन्तु जहाँ तक गृहस्थों का प्रश्न है, उनके लिए यह माना गया है कि उन्हें लोक-परम्परा का निर्वाह करना चाहिए। दिगम्बर - परम्परा के सोमचन्द्रदेव का कथन है - " जिससे सम्यक्त्व की हानि न हो, आचार का विरोध न हो, वह लोकाचार भी गृहस्थ के द्वारा मान्य होता है।"863 लोकसंज्ञा को लोक-रीति कहा गया है।
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बंजा कहे. आलम उसे बजहा समझो,
आवाज खल्क करें, नक्कारए खुदा समझो ।
प्रज्ञापनासूत्र, पद 8
मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छन्दाद्यगोचर तद्विशेषावषोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा । - स्थानांगवृत्ति, पत्र 479
यंत्र सम्यक्त्वर्नहानि न व्रतदूषणं ..
लौकिकोविधि । - सोमदेव
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