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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
उसका आभास पाकर अपने बिलों, घोंसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं। कई मछलियाँ देख नहीं सकती, परन्तु सूक्ष्म विद्युत धाराओं के जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों का ज्ञान कर संचार करती हैं। यह सब ओघ -संज्ञा ही है । वर्त्तमान के वैज्ञानिक आजकल छठवीं इन्द्री की कल्पना कर रहे हैं, उसकी तुलना ओघसंज्ञा से की जा सकती है। 859
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जैन - परम्परा में जो नियुक्तियां उपलब्ध हैं,, उनमें दशवैकालिकसूत्र पर ओघ - निर्युक्ति का उल्लेख मिलता है। ऐसा माना जाता है कि दशवैकालिकसूत्र पर जो नियुक्ति लिखी गई है, उसमें पिंडनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति प्रमुख हैं। उनमें पिंड - नियुक्ति का संबंध साधु की भिक्षाचर्या से है और ओघनिर्युक्ति का संबंध साधु के अन्य आचार-नियमों से है। यद्यपि निर्युक्ति का कर्त्ता भद्रबाहुस्वामी को माना जाता है, किन्तु ऐसा लगता है कि ओघनिर्युक्ति परवर्तीकालीन जैन-आचार्यों ने लिखी है, क्योंकि आचार्य भद्रबाहुकृत जिन नियुक्तियों का उल्लेख मिलता है, उनमें ओघनियुक्ति और पिंडनिर्युक्ति का कहीं नाम-उल्लेख नहीं है। सामान्यतः, ओघनियुक्ति में साधु के सामान्याचार का ही वर्णन है। इस सामान्य विवेचन में पिंडनिर्युक्ति के अनेक विषयों को भी सम्मिलित किया गया है।
ओघनियुक्ति को आवश्यकनिर्युक्ति का ही पूरक ग्रंथ माना जाता है। पूर्णविजयजी के संग्रह में ओघनियुक्ति के वृहद्भाष्य की एक हस्तलिखित प्रति का भी उल्लेख मिलता है । इसमें साधु के सामान्य आचार के संदर्भ में षडावश्यक, दशविधसामाचारी आदि का भी उल्लेख हुआ है। सामान्यतः, यह निर्युक्ति साधु - आचार से सम्बन्धित है, इसलिए नियुक्तिकार ने यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि इसमें चरणकरणानुयोग का विवेचन किया गया है, अतः यह ग्रंथ मूलतः साधु के सामान्य आचार से संबंधित है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि षडावश्यक, दशविध - सामाचारी, दस श्रमणधर्म, पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि साधु के सामान्य आचारों का आधार लेकर यह नियुक्ति लिखी गई है । इसके विषयवस्तु की चर्चा करते हुए कहा गया है कि प्रतिलेखन, पिंड, उपधि, परिमाण, अनायतन, प्रतिसेवन, आलोचन, विशुद्धि, आभोगमार्गणा, गवेषणा आदि का विवेचन ही इस नियुक्ति में हुआ है ।
859 नवभारत टाइम्स (मुम्बई) 24 मई 1970 उद्धत् - ठाणंसूत्र मुनिनथमल जैनविश्वभारती, लाडनूं, पृ.999 ओघनिर्युक्ति – 2
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