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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 395 है, किन्तु यदि हम गहराई से विचार करें, तो लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा का संबंध सामान्य {Generality} से है। इस दृष्टि से सामान्य धर्म की बात करते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के लिए जो नियम और साधना होती है, वह विशेष कही जाती है, जबकि सभी के लिए जो नियम और साधनाएं बताई जाती हैं, वे सामान्य होती हैं। अभिधानराजेन्द्रकोष854 में ओघ शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है - ओघ शब्द सामान्य का सूचक है। निशीथचूर्णि के आधार पर भी यह कहा गया है कि शास्त्र का जो सामान्य अभिधान होता है, वह ओघ कहा जाता है। उसी में ओघ को दो प्रकार से विभाजित किया गया है - द्रव्य-ओघ और भाव-ओघ। आध्यात्मिक को भाव-ओघ और परंपरागत उपदेशों को द्रव्य-ओघ कहा गया है। जो शब्द संक्षेप में भी व्यापक अर्थ का बोधक होता है, उसे भी ओघ कहते हैं। इस प्रकार, ओघ शब्द सामान्य सिद्धांतों के संक्षेप में किए गए विवेचन ओघ-संज्ञा के नाम से जाना जाता है। "प्राणीमात्र में रहने वाली सामान्य अनुकरण की वृत्ति या सामुदायिकता की भावना ओघ-संज्ञा है, अर्थात् अपनी जाति, वर्ग आदि के अनुकरण की वृत्ति ओघसंज्ञा है। 855 प्रज्ञापनासूत्र में -"मतिज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर रुचिकर पदार्थों या लोकप्रचलित शब्दों के अनुरूप पदार्थों (अर्थों) को सामान्य रूप से जानने की अभिलाषा ओघसंज्ञा है।"856 प्रवचनसारोद्धार के अनुसार -मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से शब्दादि का सामान्य ज्ञान होना, ओघसंज्ञा है।857 स्थानांगवृत्ति में भी ओघ-संज्ञा का अर्थ सामान्य अवबोध-क्रिया, दर्शनोपयोग या सामान्य प्रवृत्ति-क्रिया है ।858 वस्तुतः, ओघ-संज्ञा इन्द्रिय और मन से पृथक, चेतना की एक स्वतंत्र क्रिया है। पेड़ पर लताओं का चढ़ना, बैठे-बैठे पैर हिलाना, तिनके तोड़ना, बिना सोचे-विचारे किसी कार्य को करने की धुन या सनक को ओघ-संज्ञा कहते हैं। स्पर्श-रसादि के विभाग के बिना जो साधारण ज्ञान होता है, वह ओघ-संज्ञा है। भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी 854 अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग-3, पृ. 86 155 उत्तराध्ययनसूत्र, दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व – साध्वी डॉ. विनीतप्रज्ञा, पृ. 491 856 "मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमत् शब्दाद्यर्थगोचर सामान्यवषोधक्रियायाम्"- प्रज्ञापनासूत्र, पद-8 857 प्रवचनसारोद्धार, साध्वी हेमप्रभाश्री, द्वार--146, गाथा 924, पृ. 80 858 मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छब्दाध गोचर सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा। -स्थानांगवृत्ति, पत्र 479 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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