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________________ 394 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अध्याय-10 लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा के विभिन्न अर्थ (Worldly injoyment and common sense) संज्ञा जैन–मनोविज्ञान का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैनदर्शन में संज्ञी और संज्ञा -इन दोनों शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। संज्ञी शब्द विवेकशीलता का भी वाचक है। अन्य दृष्टि से वह व्यवहार का प्रेरक भी माना जाता है। नन्दीसूत्र में तीन प्रकार के संज्ञी बताए गए हैं1. कालिकोपदेश, 2. हेतूपदेश, 3. दृष्टिवादोपदेश | इन संज्ञी के आधार पर हम संज्ञाओं के भी तीन भेद कर सकते हैं- 1.कालिकोपदेशिकी, 2. हेतुपदेशिकी, 3. दृष्टिवादोपदेशिकी। इसका अर्थ इस प्रकार से है कि कालिक-सूत्रों के अध्ययन से, हेतु के उपदेश से और दृष्टिवाद के अध्ययन से व्यवहार से जो प्रेरणा मिलती है, वही इन संज्ञाओं का अर्थ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में संज्ञाओं के दो पक्ष हैं - एक, ज्ञानात्मक और दूसरा- संवेगात्मक। संवेगात्मक-संज्ञाओं को हम वासनात्मक भी कह सकते हैं। यहाँ वासनात्मक अर्थ व्यापक अर्थ में गृहीत है। सैद्धान्तिक-दृष्टि से ज्ञानावरण, दर्शनावरण के क्षयोपशम से जो चैतसिक-स्थिति बनती है, वह ज्ञानात्मक-संज्ञा है तथा वेदनीय और मोहनीय-कर्म के उदय से जो संज्ञाएं उत्पन्न होती हैं, वे संवेगात्मक और वासनात्मक-संज्ञा हैं। भगवतीसूत्र के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने ओघ-संज्ञा का अर्थ दर्शनोपयोग और लोक-संज्ञा का अर्थ ज्ञानोपयोग किया है।852 ___ संज्ञाओं का जो दशविध वर्गीकरण853 किया जाता है, उसमें नौवें और दसवें क्रम पर लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा को स्थान दिया गया है। यद्यपि संज्ञाओं के वर्गीकरण में दोनों को अलग-अलग स्थान दिया गया 851 नंदीसूत्र – 61 852 भगवई, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती, लाडनूं, श.7. उ. 8, सूत्र 161, पृ. 382 1) स्थानांगसूत्र - 10/105, 2) प्रज्ञापनासूत्र, पद-8, 3) प्रवचनसारोद्धार, साध्वी हेमप्रभाश्री, द्वार 146, गाथा 924, पृ. 80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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