________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
नींव के बिना इमारत नहीं, बीज के बिना वृक्ष नहीं, तन्तु के बिना वस्त्र नहीं, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ - इन कषाय-संज्ञाओं के बिना संसार - परिभ्रमण संभव नहीं है । संसार का आधारस्तम्भ ये चार कषायरूपी संज्ञाएं हैं ।
दशवैकालिकसूत्र847 में चारों काषायिक प्रवृत्तियों के जय के उपाय बतलाए गए हैं • क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता (विनयभाव) से, को सरलता से जीतें और लोभ को संतोष से जीतें ।
-
माया
नियमसार ₹ 848 और योगशास्त्र 849 में भी इसी प्रकार कहा गया है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसी आशय से कहा है कि जब तक इन काषयिक - प्रवृत्तियों का क्षय नहीं होगा, उन पर जय प्राप्त नहीं होगी, तब तक मुक्ति संभव नहीं ।
847
"न दिगम्बर होने से, न श्वेताम्बर होने से, न तर्कवाद से, न तत्त्व - चर्चा से, न पक्ष की सेवा से मुक्ति है, वस्तुतः कषायमुक्ति ही मुक्ति है ।" लोभ सभी कषायों का राजा है, उस पर विजय प्राप्त कर लेने पर सभी कषायों पर विजय प्राप्त हो जाती है, अतः संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करना चाहिए ।
848
849
नासाम्बरत्वे, न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे, न पक्षसेवाश्रएण मुक्ति, कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव ।
,850
850
393
-000-
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे । । - दशवैकालिकसूत्र - 8/39
कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च ।
संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए । । - नियमसार, गाथा 115 क्षान्त्या क्रोधो, मृदुत्वेन मानो, मायाऽऽर्जवेन च ।
लोभश्चानीहया, जेयाः कषायाः इति संग्रहः । । - योगशास्त्र - 4/23
सम्बोध सप्तवर्तिका, गाथा 2
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org