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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
7.
लोभ - विजय के लिए साधक को विचारणा-स्तर पर बारह - भावना का चिन्तन एवं आचरण - स्तर पर बारह तप का अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए ।
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लोभी व्यक्ति मरते दम तक भी संतप्त रहता है, जबकि संतोषी मृत्यु के समय भी हंसता रहता है। बादशाह सिकन्दर जब अपनी अंतिम सांसें ले रहा था, तो उसकी आँखों से आंसू बह निकले। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि सिकन्दर महान् होकर भी क्यों रो रहा है ? सिकन्दर ने कहा - "जिस दौलत के लिए मेरे हाथ आजीवन युद्ध करते रहे हैं, वे हीं हाथ आज खाली हो गए हैं । "
आया था जो सिकन्दर, दुनिया से ले गया क्या ? थे दोनों हाथ खाली, बाहर कफन से निकले ।
लोभी लोभ में ही मर जाता है, परन्तु सन्तोषी मरकर भी अमर हो जाता है। सूत्रकृतांगसूत्र में भगवान् ने कहा है - "संतोसिणो नो पकरेंति पावं", अर्थात् संतोषी कभी पाप नहीं करता । सुप्रसिद्ध विचारक सुकरात का कथन है "संतोष प्राकृतिक धनाढ्यता है और ऐश्वर्य कृत्रिम निर्धनता
है । "
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जिसके पास संतोष है, वह तो स्वभाव से ही धनवान् है और जिसके पास केवल धन है, धन का लोभ है, वह बनावटी गरीब है। गरीब न होते हुए भी उसने अपने ऊपर गरीबी ओढ़ रखी है। ऐसा व्यक्ति कभी सुखी हो ही नहीं सकता ।
सन्त तुकाराम का कहना है इसलिए सदा संतुष्ट रहो। यह संतोष
"संतोष ही सुख है, शेष सब दुःख, तेरा उद्धार कर देगा । "
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वह संतोष ही है, जो व्यक्ति को शक्तिशाली बनाता है, क्षमाशील बनाता है, सहिष्णु बनाता है और सबसे बढ़कर उसे सुखी बनाता है, इसीलिए उसे सर्वश्रेष्ठ धन माना जाता है -
'संतोषः परमं धनम् ।'
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