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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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__ 1. जैसे जल को रोकने के लिए बाँध बांधा जाता है, उसी प्रकार लोभ पर विजय पाने के लिए संतोषरूपी बाँध बांधा जाना चाहिए। धन बुरा नहीं है, किन्तु धन का लोभ बुरा है। जो अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश रखता है और ईमानदारी से कमाए हुए धन से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, वही संतुष्ट रहता है, सुखी रहता है।
2. सांसारिक भोगों में सुखाभास होता है, सुख नहीं। पर-पदार्थों से या पर-द्रव्यों से कभी शाश्वत सुख नहीं मिल सकता है।
मंथन करे दिन रात जब, घृत हाथ में आवे नहीं, रज रेत पिले रात दिन, पर तेल जो पावे नहीं, सद्भाग्य बिन जो संपदा, मिलती नहीं व्यापार में, निज आत्मा के भाव बिन, त्यों सुख नहीं संसार में ।।846
3. समाज में इज्जत या नाम भी लोभ से इकट्ठे किए गए धन से प्राप्त नहीं होती। सच्ची इज्जत तो क्षमा, परोपकार, सरलता आदि सद्गुणों से ही मिलती है।
4. इच्छा मात्र कर्म-बन्ध और लोभ का कारण है। जन्म-मरण के चक्र में निमित्त इच्छा है। लोभ से ही इच्छा उत्पन्न होती है, अतः सम्मान की अभिलाषा, पद की कामना, इन्द्रिय-विषयों की अभीप्सा, जीवन-सुरक्षा की चाहना, स्वस्थता की आकांक्षा को कम करने का प्रयास करना चाहिए।
5. भौतिक सुविधा-साधन भी लोभ से नहीं, पुण्य से प्राप्त होते हैं। जहां लोभ है, वहां व्याकुलता है, प्राप्त पदार्थों के संरक्षण की चिन्ता, वियोग का भय बना रहता है।
6. लोभजय के लिए इच्छाओं को अल्प करना, स्व-स्त्री, स्व-धन में संतोष धारण करना तथा बाह्य-परिग्रह त्यागकर आभ्यन्तर परिग्रह-ग्रन्थियों को तोड़ने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।
संतोषसेतुबन्धेन, प्रसरन्तं निवारयेत् ।। - योगशास्त्र- 4/22 846 पं. हुकुमचंद भारिल्ल। – बारह भावना
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