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________________ 390 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व भगवान महावीर ने कहा है- "बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करो।839 यहाँ तक कि दाँत कुरेदने के लिए एक तिनका भी न लो।940" कोई भी चीज आज्ञा लेकर ग्रहण करना चाहिए 841 वैदिक-धर्म में भी चोरी का स्पष्ट निषेध है। 42 किसी की भी कोई चीज ग्रहण न करें। महात्मा ईसा ने भी कहा- तुम्हें चोरी नहीं करना चाहिए ।943 चोरी एक लोभजन्य वासना है, जो एक बार लग जाने पर छूटती नहीं है, जिससे मानव के दया, अहिंसा, क्षमा, सत्त्व आदि सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। चोरी से प्राप्त धन, जीवन में शान्ति नहीं देता। वस्तुतः, लोभसंज्ञा के दुष्परिणाम और प्रभाव से संसार का कोई प्राणी अपरिचित अथवा अप्रभावित नहीं है; किन्तु उसे दुःख और अनीति का कारण मानने वाले लोग विरल हैं। इस लोभवृत्ति को समझकर इसका शमन करें। लोभ पर विजय कैसे? उत्तराध्ययनसूत्र में पूछा गया है -"लोभ के विजय से जीव को कौन-सा लाभ होता है ?" प्रभु ने उत्तर दिया -“लोभ विजय से संतोष उत्पन्न होता है। लोभ- वेदनीयकर्म का बंधन नहीं होता तथा पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। योगशास्त्र में कहा है -"लोभरूपी समुद्र को पार करना अत्यन्त कठिन है। उसके बढ़ते हुए ज्वार को रोकना दुष्कर है, अतः महाबुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि संतोषरूपी बाँध बांधकर उसे आगे बढ़ने से रोक ले।845 839 अदिन्नमन्नेसु य णो गहेज्जा- सूत्रकृतांगसूत्र- 10/2 840 दन्तसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं- उत्तराध्ययनसूत्र 19/28 841 अणुन्नविय गेण्हियव्व। – प्रश्नव्याकरणसूत्र- 2/3 842 कस्यचित् किंमपि नो हरणीयम्। – यजुर्वेद- 36/22 843 Thous shall not steal – Bible लोभविजयेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? लोभविजएणं संतोसिभावं जणयइ, लोभवेयणिज्ज कम्मं ने बन्धइ, पव्वबद्धं च कम्मं निज्जरे इ.... । - उत्तराध्ययन - 29/70 845 लोभ सागर मुवेलमतिवेलं महामतिः । 844 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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