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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 389 8. समाज में जुआ और भ्रष्टाचार का कारण लोभ - बिना परिश्रम के विराट् सम्पत्ति प्राप्त करने की तीव्र इच्छा, लालसा जुआ है। यह लालसा भूत की तरह मानव के सत्त्व को चूस लेती है। जिसको यह लत लग जाती है, वह मृग-मरीचिका की तरह धन-प्राप्ति की अभिलाषा से अधिक-से- अधिक धन बाजी पर लगाता चला जाता है और सारा धन नष्ट हो जाता है। ऋग्वेद में द्यूत-क्रीड़ा को त्याज्य माना है।833 सूत्रकृतांग में भी चौपड़ या शतरंज के रूप में जुआ खेलने का निषेध किया गया है, क्योंकि हारा जुआरी लोभ के कारण दोगुना खेलता है। 834 एक पाश्चात्य-चिन्तक ने भी लिखा है - जुआ लोभ का बच्चा है और फिजूलखर्ची का पिता है।935 जुए में आसक्त व्यक्ति धन का नाश करता है।996 एच.डब्ल्यू.वीचर का अभिमत है –“जुआ, चाहे वह ताश के पत्तों के रूप में खेला जाता हो, या घुड़दौड़ अथवा द्वन्द्व-युद्ध या सट्टे के रूप में, सभी में बिना परिश्रम किए धन प्राप्त करने की इच्छा निहित है। आँखों से अंधा मनुष्य आँख के सिवाय बाकी सब इंद्रियों से जानता है, किन्तु जुए में अंधा हुआ मनुष्य सब इंद्रियां होने पर भी कुछ नहीं जान पाता।938 समाज में भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी, मिलावट, अन्याय, अनीति, शोषण, मैच–फिक्सिंग -ये सभी अपराध लोभ के कारण ही होते चोरी का केन्द्र : लोभ - चोरी का वास्तविक अर्थ है- जिस वस्तु पर अपना अधिकार न हो, उसके मालिक की बिना अनुज्ञा या अनुमति के उस पर अधिकार कर लेना। चोरी का मूल केन्द्र लोभ है। लोभ के कारण मनुष्य दूसरों की वस्तु को हथियाने, या उसे अपने अधिकार में करने का प्रयास करता है। 833 अक्षर्मा दिव्यः । -ऋग्वेद-10/34/13 834 अट्ठाए न सिक्खेज्जा -सूत्रकृतांगसूत्र-9/10 835 Gambling is the child of avarice, but the father of prodigality. 836 जुएं पसत्तस्स धणस्स नासो। - गौतम कुलक 837 Gambling with cards or dice or strokes in all is one thing, it is getting money without giving an equivalent for it. 838 अक्खेहि णरो रहियो, ण मुणइ सेसिंदएहि वेएइ। जूयंधो ण य केण वि, जाणइ संपुण्ण्करणो वि।।- वसुनन्दि श्रावकाचार, 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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