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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 830 रावण को अपनी सुविशाल सेना के बावजूद भी हारना पड़ा। राज्य के लोभ से ही औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद किया और अपने भाइयों को मरवा दिया । नन्दराजा के पास स्वर्ण के ढेर थे, फिर भी उन्हें शान्ति नहीं थी । लोभ पर पाप प्रतिष्ठित है। लोभ ही पाप की माता है और राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाला लोभ ही पाप का मूल कारण है। 831 लोभी मनुष्य धन को देखता है, किन्तु उससे उत्पन्न होने वाले दुःख को नहीं देखता है। बिल्ली दूध को देखती है, किन्तु लाठी के प्रहार को नहीं देखती। लौकिक-कथा में पाप का बाप लोभ को ही बताया है । 388 6. लोभ मुक्ति - मार्ग का बाधक है साधना - मार्ग में स्थिर होना हो, तो लोभ - कषाय का शमन कर ही मुक्ति-मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं, परंतु लोभ की प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति सम्पत्ति-अर्जन में ही लगा रहता है और उसका उपभोग भी नहीं कर पाता। स्थानांगसूत्र 2 में कहा है "इच्छा लोभि ते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथ अर्थात्, लोभ मुक्ति-मार्ग का बाधक है। लोभी व्यक्ति मुक्ति-मार्ग की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। मम्मण सेठ ने अति लोभ के फलस्वरूप नरक - आयु का बन्ध किया । 7. लोभ ईर्ष्या को बढ़ाता है लोभ - प्रवृत्ति के कारण ईर्ष्या उत्पन्न होती है । व्यक्ति की यह मानसिक प्रवृत्ति होती है कि वह दूसरों को बढ़ता देखता है, तो उसके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है और उससे आगे बढ़ने के लिए वह प्रतिस्पर्धा प्रारंभ कर देता है। वह ईर्ष्यारूप प्रतिस्पर्धा, चाहे धनसंचय, विद्याध्ययन, कलात्मक व्यवसाय के क्षेत्र में हो, यदि उनके मूल में देखें, तो लोभ ही इन सबका संपादक है । 830 831 - 1 Jain Education International रामायण कथा लोभ प्रतिष्ठा पापस्य, प्रसूतिर्लोभ एव च । द्वेष-क्रोधादिजनको लोभः पापस्य कारणम् ।। 832 स्थानांगसूत्र 1 भोजप्रबन्ध For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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