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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 387 मम्मण अभ्यागतों को तल-कक्ष में ले गए और वहां परदा हटाया। भीतर का दृश्य देखते ही सबकी आँखें विस्फारित हो गईं। रत्नजटित स्वर्ण निर्मित बलद जोड़ी थी। एक बैल का एक सींग अभी रत्नजड़ित होना शेष था। राजा ने दाँतों तले अंगुली दबा ली और सोचने लगा - इतना धन और फिर भी इतना परिश्रम? इतनी तृष्णा ? धन्यवाद है -तेरे इस लोभ को। 4. असंतोष - लोभ का जन्म असंतोष से होता है और आसक्ति के कारण मनुष्य की असंतोष-वृत्ति प्रबल होती जाती है। मनोहर, आकर्षक पदार्थों को देखकर मनुष्य की भोगोपभोग की भावना बलवान् होती है। सुभूम चक्रवर्ती2 षट्खण्डाधिपति थे। चक्रवर्ती पदभोक्ता, चौदह रत्नों के स्वामी सुभूम को अतुल सम्पदा प्राप्त होने पर भी संतोष नहीं था। सप्तम खण्ड विजय की भावना बलवती बनने लगी। देववाणी से इन्कार होने पर भी विजयोन्माद में कदम बढ़ चले। अथाह जलराशि पर तैरता देवाधिष्ठित जलयान - अचानक एक देव के मन में विचार आया -यदि मैं कुछ क्षणों के लिए अपना स्थान छोड़ दूं, तो क्या हानि है ? यही विचार उन समस्त देवों के मन में उसी समय आया, जिन्होंने जहाज संभाला हुआ था। देवों के जहाज से हटते ही वह जलयान सागर की अतल गहराई में जा पहुंचा और सातवें खण्ड की विजय का स्वप्न लिए सुभूम चक्रवर्ती अगली जीवन-यात्रा पर चल पड़ा। 5. लोभ पाप का बाप - लोभ दुःख एवं पापों का मूल है। लोभी व्यक्ति को सम्पूर्ण संसार की सम्पत्ति भी क्यों न मिल जाए, फिर भी उसकी तृप्ति नहीं होती। लोभ के कारण व्यक्ति कितना गिर सकता है। एक राजस्थानी कहावत है'मीठा रै लालच में ऐंठो खावे, अर्थात्, मीठी चीज के लोभ में पड़कर किसी का जूठा तक खाने को व्यक्ति तैयार हो जाता है। राज्य के लोभ में दुर्योधन ने पाण्डवों और कुन्ती को जलाने के लिए लाक्षागृह बनवाया। 829 राज्य के लोभ में विभीषण ने राम को लंका के सारे भेद बता दिए, जिससे 828 829 कथा संग्रह महाभारत कथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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