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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 825 यह तृष्णा व्यक्ति को कर्त्तव्य से विमुख कर देती है, धर्म के मार्ग से दूर ले जाती है, असंतोष के समुन्दर में डुबो देती है और अशांति के जंगल में भटका देती है। उत्तराध्ययनसूत्र में 'कपिल ब्राह्मण' का उदाहरण प्रसिद्ध है - उसने दो माशा स्वर्ण की प्राप्ति की इच्छा राजा के समक्ष प्रकट की । राजा ने प्रसन्न होकर कहा "हे विप्र ! दो माशा ही नहीं, तुम्हारी इच्छानुसार धन (स्वर्ण) तुम्हें प्राप्त होगा। कहो! कितना चाहिए ?" 386 - कपिल क्षणभर स्तब्ध रह गया। उसके मन में तृष्णा की तरंगें तीव्र वेग से उठने लगीं। कितना मांगना ? दो माशा, नहीं । सौ स्वर्णमुद्रा ? नहीं । एक हजार स्वर्णमुद्रा ? नहीं। एक लाख स्वर्ण मुद्रा ? नहीं, नहीं । आधा राज्य ? नहीं। क्या सम्पूर्ण राज्य ? हाँ-हाँ, यही ठीक है। तुरन्त विवेक ने लोभ को थप्पड़ लगाया। ओ हो ! कैसा मेरा लोभ ? कैसी मेरी तृष्णा ? मन तत्त्व - चिन्तन की श्रेणी पर आरूढ़ हो गया । यह तृष्णा तो एक विष - लता के समान है, जो भयंकर है और भयंकर फल पैदा करने वाली है826 और ऐसा चिन्तन करते हुए उसने समस्त कर्मों का क्षय कर लिया, कैवल्य को प्राप्त कर बिना कुछ मांग्रे चल दिया । इसी प्रकार, मम्मण सेठ 8 27 का उदाहरण भी प्राप्त होता है - "लोभ और तृष्णा के कारण अर्द्धरात्रि में उफनती नदी से लकड़ियाँ बाहर लाते देखकर श्रेणिक महाराजा दयार्द्र हो उठे और कहा - " जो चाहिए मांग लो। " "राजन् ! केवल एक बैल चाहिए ।" नृपति ने आदेश दिया - "इन्हें गोशाला में ले जाओ और जो बैल ये लेना चाहे, इन्हें दे दिया जाए, पर मम्मण सेठ को कोई बैल पसन्द नहीं आया । "राजन्! मेरे बैल जैसा आपके पास एक बैल भी नहीं", मम्मण के ये शब्द सुनकर राजा चौंक गए। "ऐसा बैल हमारी गौशाला में नहीं है, तो हम तुम्हारा बैल देखने जरूर आएंगे" - महाराजा श्रेणिक ने कहा । महारानी चेलना एवं मंत्री - परिवार के साथ सम्राट मम्मण सेठ के यहां पहुंचे। सम्राट ने गृहांगण में प्रवेश किया, लेकिन बैल दिखा नहीं । 825 उत्तराध्ययनसूत्र - अ. 8 826 भवतहा लया वृत्ता, भीमा भीमफलोदया । - उत्तराध्ययन-32/48 827 कथा संग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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