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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है। समाज में उत्पन्न दहेजप्रथा लोभ का ही एक रूप है। लोभ से ग्रस्त वर-पक्ष वधू-पक्ष से धन (दहेज) की याचना करता है, यदि धनपूर्ति नहीं हुई, तो वधु को शब्द-बाणों से प्रताड़ित किया जाता है, उससे मारपीट की जाती है और कई बार तो केरोसीन डालकर जिंदा जला दिया भी जाता है। समाज में उत्पन्न इस कुप्रथा का मूल यदि देखें, तो वह लोभ ही है। लोभ जब तक समाज में व्याप्त रहेगा, तब तक हिंसा का साम्राज्य समाज में सदा बढ़ेगा। लोभान्ध व्यक्ति स्वार्थ की सिद्धि के लिए, धन की प्राप्ति के लिए क्रूर बनकर किसी की भी हत्या कर डालता है, चाहे वह माता हो, पिता हो, पुत्र हो, बहिन हो, मित्र हो, मालिक हो, या सगा भाई821 | धन के लिए आतुर रहने वाले तो अपने गुरुदेव तक की परवाह नहीं करते हैं। 82 यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्कर फल भोगना पड़ता है।823
3. तृष्णा का मूल लोभ है -
इच्छा, स्पृहा, वासना और तृष्णा यद्यपि पर्यायवाची शब्द प्रतीत होते हैं, परन्तु इनमें सूक्ष्म अंतर भी है। वस्तु का चाहना- इच्छा है। अत्यावश्यक वस्तु की इच्छा- स्पृहा है। प्राप्त वस्तु को टिकाए रखने की स्पृहा - वासना है और टिकी वस्तु को बढ़ाने की वासना- तृष्णा है। जो तृष्णा का गुलाम हो जाता है, वह जीवनभर दौड़-धूप करता रहता है। कभी शांति या सुख का अनुभव उसे नहीं हो पाता। धन ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है, परंतु जीवनभर परिश्रम करके इकट्ठे किए गए समस्त धन को वह यहीं छोड़ जाता है। अंतिम सांस छूटते ही धन भी छूट जाता है, परंतु तृष्णा तरुणी बनी रहती है । ८१
आगाह अपनी मौत से, कोई बशर नहीं। सामान सौ बरसों का है, पल की खबर नहीं।।
821 मातरं पितरं भ्रातरं, स्वसारं वा सुहर ।
लोभाविष्ठो नरो हन्ति, स्वामिनं वा सहोदरम्।। – भोजप्रबन्धः अर्थातुराणां न गुरूर्न बन्धुः ।
अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चती।- सूत्रकृतांग- 1/9/4 824 तृष्णां न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।
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