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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है, तो एक ओर संग्रह बढ़ता है, तो दूसरी और संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है। परिणामस्वरूप, सामाजिक-जीवन में आर्थिक-विषमता बढ़ती जाती है। ऋग्वेद में कहा है - "जिसके पास संपत्ति का एक भाग है, वह दो भाग वाले पथ पर चलता है, दो भाग वाला तीन भाग वाले का अनुकरण करता है, अतः कामनाओं का दण्ड निरन्तर बढ़ता रहता है और ये कामनाएं संग्रहवृत्ति को प्रेरित करती हैं। ° उत्तराध्ययनसूत्र में प्रभु महावीर ने यही कहा है -"जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लाहो पवडढइ',819 अर्थात् लाभ के साथ-साथ लोभ बढ़ता रहता है। शब्द बदलकर यही बात संत तुलसीदास ने यो कही है -
"जिमि प्रतिलाम लोम अधिकाई।
पाश्चात्य-विचारक ने भी इन्हीं शब्दों को इस प्रकार कहा है -
'The more they get, the more they want'
वे जितना अधिक प्राप्त करते हैं, उतना ही अधिक चाहते हैं। वस्तुओं के संग्रह की इच्छा ही लोभ है, जो सुख की नाशक है। दशवैकालिकसूत्र में बताया है - "जो सदा संग्रह करने की इच्छा मन में रखता है, वह गृहस्थ ही है, प्रव्रजित (साधु) नहीं। जितनी लोभवृत्ति या तृष्णा बढ़ती है, उतनी ही संग्रहवृत्ति बढ़ती जाती है और जितनी संग्रहवृत्ति में वृद्धि होती है, उतना ही दुःख में वृद्धि होती है।820
2. लोभ एक सामाजिक-हिंसा -
लोभवृत्ति एक सामाजिक–हिंसा है। लोभवृत्ति के कारण ही संग्रह की भावना प्रबल होती है। वस्तुतः, यह स्पष्ट है कि 'संग्रह' हिंसा से ही प्रत्युत्पन्न होता है, क्योंकि बिना शोषण के संग्रह असम्भव है। व्यक्ति संग्रह
818 ऋग्वेद - 10/117/8 819 1) उत्तराध्ययनसूत्र - 9/17
2) जे सया सन्मिही कामे, गिही पव्वइए ण से। - दशवैकालिक सूत्र-6/19 820 ये तण्हं बडढेन्ति ते उपधिं वड्ढेन्ति।
ये उपधिं वड़ढेन्ति ते दुक्ख वड्ढेन्ति।। - संयुत्तनिकाय- 2/12/66
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