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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 383 वह अप्रतिष्ठित- लोभ है। अप्रतिष्ठित-लोभ में व्यक्ति का एकमात्र उद्देश्य धन का संचय होता है, जैसे- स्वास्थ्य-लाभ के लिए महंगी औषधि नहीं खरीदना, भले ही मृत्यु हो जाए, पर धन खर्च नहीं करना, इसीलिए यह कहावत प्रसिद्ध है- 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए'। आगे हम लोभ के दुष्परिणामों की और लोभ-विजय के उपायों की चर्चा करेंगे। लोभ के दुष्परिणाम - दशवैकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन में कहा गया है -"क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान (अहंकार) विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। 816 यहाँ लोभ को सर्व सद्गुण- विनाशक कहा गया है। लोभ-प्रवृत्ति से वर्तमान और आगामी- दोनों जीवन नष्ट होते हैं, क्योंकि लोभ के कारण ही तृष्णा. उत्पन्न होती है। तृष्णा में अंधा बना व्यक्ति क्या उचित है, क्या अनुचित है- इसका विवेक खोकर दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। लोभ के कारण आकुल-व्याकुल बना मन कामनाओं की पूर्ति के लिए सब कुछ कर गुजरने का मानस बना लेता है, भले ही वे सत्ता, सम्पत्ति, सुन्दरी आदि किसी से भी सम्बन्धित हों। लोभ की पूर्ति न होने पर वह हत्या और आत्महत्या के स्तर तक पहुंच जाता है। सूत्रकृतांग में कहा है -"निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मांस के लोभ से जाल में फंस जाता है, उसी प्रकार आसक्तिवश मनुष्य भी लोभ में फंसकर अपना विनाश कर लेता है। 817 लोभ के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं - 1. संग्रहवृत्ति - लोभ संग्रहवृत्ति का प्रथम सोपान है। लोभ के कारण ही व्यक्ति में लालसा उत्पन्न होती है। आवश्यकता न होने पर भी लोभ-प्रवृत्ति के कारण वह धन का संचय करता है। धनसंचय देश, समाज और व्यक्तियों में वर्गभेद, संघर्ष, हिंसा, तनाव आदि सामाजिक-विषमताओं का कारण बनता है। चेतना का जब भौतिक-जगत् से संबंध होता है, तो उसे अनेक 816 कोहो पीइं पणासेइ माणो विणय णासणो। ____माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्वाविणासणो।। - दशवैकालिकसूत्र- 8/38 87 सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेगं चरंति पासेणं। - सूत्रकृतांगसूत्र- 1/4/1/8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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