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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
लोभ के प्रकार की चर्चा के साथ-साथ लोभ के चार प्रतिष्ठान भी स्थानांगसूत्र में बताए गए हैं -
1. आत्म-प्रतिष्ठित, 2. पर-प्रतिष्ठित, 3. तदुभय-प्रतिष्ठित, 4. अप्रतिष्ठित ।
यह चारों प्रकार का लोभ नारकों से लेकर वैमानिक-देवों तक के सभी जीवों में होता है। 1. आत्म-प्रतिष्ठित स्व-निमित्त} -
जिस लोभोत्पत्ति में कारण स्वयं ही हों, जैसे- लाटरी का टिकट स्वयं ने खरीदा और लाटरी खुली ही नहीं, इस कारण दूसरी बार सफलता पाने के लालच में और टिकट खरीदना और लोभ की भावनाओं का बढ़ना आत्मप्रतिष्ठित-लोभ है।
2. पर-प्रतिष्ठित {पर-निमित्त} -
दूसरों के निमित्त होने पर अपने धन का व्यय नहीं करना। स्वयं के लिए खर्च करना, पर दूसरों पर एक टका भी खर्च नहीं करना पर-प्रतिष्ठित लोभ है, जैसे -मित्रों के साथ होटल में गए, भोजन किया, पर पैसों का भुगतान स्वयं नहीं किया, बिल का भुगतान अन्य से करवाना पर-प्रतिष्ठित लोभ के अन्तर्गत आता है।
3. तदुभय-प्रतिष्ठित -
जिस लोभ के कारण स्व तथा पर -दोनों हों, जैसे –यात्रा का आनन्द लेने के लिए मित्रों सहित प्रोग्राम बनाना और उसे तीर्थयात्रा का नाम देकर उसका भुगतान अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं से करवाना।
4. अप्रतिष्ठित -
बाह्य-निमित्त नहीं होने पर अन्तरंग में लोभ–मोहनीयकर्म के उदय से इष्ट वस्तु को प्राप्त करने के लिए जो उद्विग्नता-चंचलता बनी रहती है,
815 चउपत्तिट्ठिते लोभे पण्णते, तं जहा- आपपतिट्टिते, परपत्तिट्ठिते, तदुभयपतिहिते, अपतिहिते
एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। -स्थानांगसूत्र- 4/79
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