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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 381 लोभ चार प्रकार का होता है - स्थानांगसूत्र012 तथा प्रज्ञापनासूत्र913 में लोभ के चार प्रकार निम्न हैं- 1. आभोगनिवर्तित, 2. अनाभोगनिवर्तित, 3. उपशान्त और 4. अनुपशान्त। 1. आभोगनिवर्तित-लोभ वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने 'आभोग' का अर्थ ज्ञान किया है।814 लोभ के दुष्परिणामों को जानते हुए भी लोभ करना आभोगनिवर्तित लोभ कहलाता है। व्यक्ति जानता है कि लोभ करने से संग्रहवृत्ति और कर्मबंध होता है, पर फिर भी धन कमाने के लिए वह दिन-रात मेहनत करता रहता है। 2. अनाभोगनिवर्तित-लोभ - . लोभ के दुष्परिणाम से अनजान होकर लोभ करना अनाभोगनिवर्तित-लोभ है। आदत से मजबूर होकर लाभ-हानि का विचार किए बिना अकारण या निष्प्रयोजन लोभ करना अनाभोगनिवर्तित है, जैसेमस्मण सेठ के पास धन की कोई कमी नहीं थी, फिर भी आदत के कारण वह धन का लोभी था। 3. उपशान्त-लोभ - सुप्त लोभ–संस्कार उपशान्त-लोभ हैं। 4. अनुपशान्त-लोभ - उदय को प्राप्त लोभ अनुपशान्त-लोभ है। पूर्वकृत लोभ-मोहनीयकर्म का जब उदय होता है, वस्तु आदि पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होती है, यह अनुपशान्त-लोभ है। 812 चउन्विहे लोभे पण्णते, तं जहा- 1. आभोगणिव्वत्तिते, 2. अणाभोगविवत्तिते, 3. उवसंते, 4. अणवसंते एवं –णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।- स्थानांगसूत्र-4/91 813 प्रज्ञापनासूत्र 814 आभोगो-ज्ञानं तेन निर्वर्तितो ......... - स्थानांगवृत्ति, पत्र 182 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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