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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
18. तृष्णा - विषय-पिपासा, वस्तुओं की इच्छा। 19. विद्या - पूर्व संस्कारवश जिसका निरन्तर अनुभव हो। 20. जिह्वा - उत्तमोत्तम भोगोपभोग सामग्री के लिए जिह्वा
लपलपाना, रसदार फल, मिष्ठान्न, सुन्दर परिधान, आभूषण आदि के लिए इच्छा करना।
उपर्युक्त भेद लोभ मनोभाव के हैं। जब भी किसी वस्तु या व्यक्ति आदि को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होती है और उसके लिए जीव जब उचित और अनुचित साधन-सामग्री का उपयोग करने का उद्यम करता है, वह लोभ है। लोभ की आगमानुसार रूप-भेद विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि साधन-सामग्री के संग्रह करने की जो-जो आकांक्षा जीव में उत्पन्न होती हैं, वे सभी लोभ की ही पर्याय कहलाती हैं।
लोभ के चार भेद 10 -
1. अनंतानुबन्धी-लोभ 2. अप्रत्याख्यानी-लोभ 3. प्रत्याख्यानी-लोभ
4. संज्वलन-लोभ 1. अनंतानुबंधी-लोम -
अनन्तानुबंधी-लोभ को किरमिची के रंग की उपमा दी गई है। वस्त्र फट जाता है, पर किरमिची का पक्का रंग नहीं छूटता, उसी प्रकार, अनन्तानुबंधी लोभ से संक्लिष्ट परिणामों वाला जीव किसी भी उपाय से लोभ नहीं छोड़ता है। जिजीविषा, स्वस्थता, संयोग-प्राप्ति का लोभ अनन्तानुबन्धी-लोभ है। जब जीव देह को 'मैं' स्वरूप मानता है, तब वह जीने की आकांक्षा, आरोग्य की वांच्छा, इष्ट पदार्थों के संयोग की कामना, प्रिय व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाने की भावना रखता है। वह मम्मण सेठ की भांति कभी भी तृप्ति और संतोष धारण नहीं करता है। यह सम्यक्त्व से जीव को दूर रखता है और नरक-गति का कारण बनता है।
810 क) भगवतीसत्र- 15/5/5
ख) प्रथम कर्मग्रंथ, गाथा 20 ग) स्थानांगसूत्र- 4/87
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