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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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कसायपाहुड में लोभ के बीस रूपों की व्याख्या की गई है 809 - काम, राग, निदान, छन्द, स्तव, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या, जिह्वा ।
समवायांग एवं भगवतीसूत्र में दिए लोभ के पर्याय एवं कसायपाहुड में दिए पर्यायों में तीन-चार पर्यायों में साम्यता है, अन्य भिन्न हैं।
कसायपाहुड में उल्लेखित पर्यायों की निम्न व्याख्या है -
1. काम – स्त्री, पुरुष आदि की अभिलाषा। 2. राग - विषयासक्ति। 3. निदान - जन्मजन्मांतर संबंधी संकल्प। 4. छन्द - मनोनुकूल वेशभूषा में विचरना। 5. स्तव - विविध विषयों की अभिलाषारूप चिन्तन। 6. प्रेय – प्रिय वस्तु की प्राप्ति हेतु तीव्र भाव । 7. दोष - ईर्ष्याग्रस्त होकर परिग्रह-बहुलता की इच्छा। दूसरों को
नीचा दिखाने के लिए परिग्रह का संचय कर अपने-आपको महान्
बताने की इच्छा। 8. स्नेह - प्रिय वस्तु या व्यक्ति के विचार में एकाग्रता। 9, अनुराग - अत्यधिक स्नेहाधिक्यता रखना, अर्थात् वस्तु या व्यक्ति
के प्रति अति लगाव रखना। 10. आशा - अविद्यमान पदार्थ की आकांक्षा। 11. इच्छा – परिग्रह-अभिलाषा । 12. मूर्छा - संग्रह में गाढ़ आसक्ति। 13. गृद्धि -परिग्रह-वृद्धि हेतु अति तृष्णा। 14. साशता – प्रतिस्पर्धा। 15. प्रार्थना - धनप्राप्ति की अतीव कामना। 16. लालसा - अभीप्सित संयोग हेतु चाहना। 17. अविरति - परिग्रह-त्याग के भाव का अभाव ।
809 कामो राग णिदाणो ............. | – कषायचूर्णि, अ.9, गाथा 89
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