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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 377 2. अप्रत्याख्यानी-लोभ - अप्रत्याख्यानी-लोभ को काजल के काले दाग की उपमा दी गई है। जिस प्रकार काजल के काले धब्बे अत्यधिक परिश्रम से मिटते हैं, उसी प्रकार बहुत प्रयत्न करने पर एवं दिन-रात समझाने से ही अप्रत्याख्यानी-लोभ हृदय से दूर होता है। अप्रत्याख्यानी-लोभ व्रत-नियम में बाधा उत्पन्न करता है। क्षायिक-सम्यक्त्वी वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने राज्य में घोषणा की थी, 'जो भी नगरवासी प्रभु नेमिनाथ के चरणों में संयम ग्रहण करे, उसके कुटुम्ब-पालन का दायित्व मेरा है। वे अपने निकटस्थ प्रत्येक व्यक्ति को प्रव्रज्या-अंगीकार हेतु प्रेरणा देते थे, क्योंकि उनको अप्रत्याख्यानी का उदय चल रहा था, इसलिए वह व्रतादि नहीं ले सकते थे। 3. प्रत्याख्यानी-लोभ प्रत्याख्यानी-लोभ को कीचड़ के रंग की उपमा दी गई है। कपड़े पर लगा कीचड़ का मैला रंग आसानी से नहीं छूटता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी-लोभ भी मेहनतपूर्वक मिटता है। यह सर्वविरति में बाधक बनता है। इसकी स्थिति मात्र चार मास तक रहती है। साधना क्षेत्र में त्वरित गति से अग्रगामी होने की भावना, बारह व्रत ग्रहण कर प्रतिमाएं धारण करने की इच्छा इस लोभ में होती है। 4. संज्वलन-लोभ - संज्वलन-लोभ को हल्दी के रंग की उपमा दी गई है। जिस प्रकार वस्त्र पर पड़ा हल्दी का रंग साबुन से धोकर धूप में सुखाने से उड़ जाता है, उसी प्रकार शास्त्र-वाचन, प्रवचन-श्रवण, सद्गुरु के संयोग आदि कारणों से जो लोभ शीघ्र नष्ट हो जाता है, वह संज्वलन-लोभ है। शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति का आनन्द मिले, यह चाह भी संज्वलन-लोभ है। गजसुकुमार ने नेमीनाथ प्रभु के चरणों में दीक्षा स्वीकार करके सर्वप्रथम यह प्रश्न किया था –"प्रभो! मुझे जल्दी-से-जल्दी मुक्ति कैसे प्राप्त हो ?" पूर्ववर्ती अध्यायों में क्रोध, मान, माया और लोभ के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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