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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा'' - जिसमें सम्यक्त्व-विषयक प्ररूपणा हो, अथवा आत्म के हित-अहित को दृष्टिगत रखते हुए सम्यक निर्णय करने की क्षमता हो, वह दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा कहलाती है। इस संज्ञा की अपेक्षा से ही क्षायोपशमिक-ज्ञान या विवेक से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव संज्ञी कहे जाते हैं। मिथ्यादृष्टि सम्यक ज्ञान से रहित होते हैं, फिर भी व्यवहार की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के बाह्य-व्यवहार में कोई विशेष अन्तरं नहीं होता, क्योंकि वासना से-चालित व्यवहार अविरतसम्यग्दृष्टि में भी होता है। मिथ्यादृष्टि भी सम्यग्दृष्टि की तरह घट को घट ही कहता है। इस कारण, दोनों संज्ञी कहे जाते हैं, तथापि तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्रारूपित वस्तु-स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा न होने से मिथ्यादृष्टि का यह व्यावहारिक-सत्यज्ञान भी अज्ञानरूप ही माना जाता है, क्योंकि वस्तुतः, अतीत वस्तु का स्मरण और अनागत की चिन्ता करना संज्ञा है। केवलज्ञानी के ज्ञान में त्रैकालिक सभी वस्तुएं सदाकाल प्रतिभासित होने से उन्हें स्मरण, चिन्तन करने की आवश्यकता ही नहीं होती है। अतः, संज्ञा के इस अर्थ की अपेक्षा से क्षायोपशमिक-ज्ञानी ही संज्ञी हैं। उदयजन्य-संज्ञा - कर्मों के उदय के कारण जो जीव आहारादि संज्ञाओं में लिप्त रहता है, वह कर्मोदयजन्य-संज्ञा कहलाती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीय आदि कर्मों के उदय, क्षय अथवा क्षयोपशम से प्रकट होने वाली वृत्तियाँ एवं उनकी अन्तश्चेतना ही संज्ञा कहलाती है। जैनागमों में कर्मोदयजन्य/अनुभव-संज्ञा का वर्गीकरण अनेक प्रकार से मिलता है, जिनमें चार वर्गीकरण प्रमुख हैं - 1. चार प्रकार की संज्ञा, 2. छह प्रकार की संज्ञा 3. दस प्रकार की संज्ञा, 4. सोलह प्रकार की संज्ञा 16 वही, गाथा 921 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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