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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा -
__ अतीत, अनागत एवं वर्तमान की सम्भावनाओं या किसी कर्म के प्रेरकों एवं परिणामों का ज्ञान दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा है, जैसे- मैं यह करता हूँ, मैंने यह किया, मैं यह करूंगा इत्यादि। व्यवहार या कर्म के अतीत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति दीर्घकालोपदेश-संज्ञी है। जैनदर्शन के अनुसार, यह संज्ञा मन-पर्याप्ति से युक्त गर्भज तिर्यंच, गर्भज मनुष्यों, देवों और नारकों के ही होती है, क्योंकि त्रैकालिक-चिन्तन उन्हीं को होता है। इस संज्ञा वाले प्राणी का बोध एवं व्यवहार स्पष्ट होता है।
हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा -
जिस संज्ञा में कारण को देखकर किसी कार्य का ज्ञान हो जाता है, या जिस संज्ञा द्वारा प्राणी अपने देह की रक्षा हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट मे निवृत्ति करता है, वह हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा है, जैसे- गर्मी हो, तो छाया में जाना, सर्दी हो, तो धूप में जाना, भूख लगने पर आहारादि के लिए प्रवृत्ति करना आदि।
यह संज्ञा प्रायः वर्तमानकालीन एवं व्यवहार की प्रवृत्ति या निवृत्ति-विषयक है। द्वीन्द्रिय आदि जीवों को अतीत-अनागत की चेतना होती है, फिर भी उनका वर्तमान व्यवहार के अतीत एवं अनागत-काल का चिन्तन अति अल्प होता है, अतः वे असंज्ञी हैं। इसी प्रकार, व्यवहार में प्रवृत्ति-निवृत्ति से रहित एकेन्द्रिय जीव भी असंज्ञी ही हैं। यद्यपि पृथ्वी आदि में भी आहारादि दस संज्ञाओं की विद्यमानता प्रज्ञापनासूत्र में बताई गई है, पर वे संज्ञी नहीं कहलाते हैं, कारण, उनमें ये संज्ञाएं अति अव्यक्त रूप से हैं। जैसे अल्पधन होने से कोई धनवान् नहीं कहलाता, या आकार-मात्र से कोई रूपवान् नही कहलाता, वैसे ही आहारादि संज्ञा होने से कोई संज्ञी नहीं कहलाता। वह विमर्शात्मक-चिन्तन से ही संज्ञी कहलाता है, क्योंकि संज्ञीत्व विवेकशीलता का सूचक है, जबकि आहारादि में प्रवृत्ति होना- यह संज्ञा का वासनात्मक पक्ष है।
14 एयं करेमि एयं कयं मए इममहं करिस्सामि
सो दीहकालसन्नी जो इय तिक्कालसन्नधरो - प्रवचनसारोद्धार, गाथा 119, संज्ञाद्वार 144 प्रवचनसारोद्धार, गा. 920, संज्ञाद्वार 144
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