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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
लक्ष्य से भटक जाता है। यहाँ तक कि जब जीव काम, वासना, क्रोध, लोभ आदि संज्ञाओं के वशीभूत हो जाता है, तो वह पशुतुल्य व्यवहार करता है। उसे हित-अहित का भान ही नहीं रहता। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राणीय- व्यवहार की प्रेरक होने से संज्ञाओं का हमारे जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। संज्ञा चाहे विवेकात्मक हो या वासनात्मक, उनका हमारे व्यवहार पर बहुत अधिक प्रभाव होता है, क्योंकि वे प्राणीय-व्यवहार की प्रेरक हैं।
संज्ञाओं के विभिन्न प्रकार- चार, दस एवं सोलह
जहाँ तक जैन-आगमों का प्रश्न है, उनमें संज्ञाओं की संख्या के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं है। संज्ञा शब्द के विभिन्न अर्थों को लेकर उनका वर्गीकरण भी भिन्न-भिन्न रूप में हुआ है। संज्ञा का एक अर्थ आभोग है, वह भोगाकांक्षा-रूप है। यह संज्ञा का वासनात्मक पक्ष है। जिसका अनुभव किया जाए, वह ज्ञानरूप संज्ञा है। इस आधार पर जैनकर्म-सिद्धान्त के अनुसार संज्ञा दो प्रकार की है
1. कर्मों के क्षयोपशमजन्य और 2. कर्मों के उदयजन्य
पुनः, क्षयोपशमजन्य संज्ञाओं के भी अनेक भेद हैं। ज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली मतिज्ञान के भेद-रूपी संज्ञा क्षयोपशमजन्य-संज्ञा है, उसे ज्ञान-संज्ञा भी कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैं -
2. हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा
1. दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा 3. दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा
13 1) नन्दीसूत्र - 61 2) सन्नाऊ तिन्नि पढमेऽत्थ दीहकालोपएसिया नाम
तह हेउवायदिट्टिवाउवएसा तदियराओ - प्रवचनसारोद्धार, गाथा 118, संज्ञाद्वार 144 3) दण्डक प्रकरण, गाथा 32
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