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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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3. कब तक करता है ?
उपर्युक्त सभी प्रश्न हमें एक बार यह सोचने को विवश करते हैं कि इनके पीछे कौन-सा तत्त्व है। वस्तुतः, उनके मूल में जो तत्त्व है, वही 'संज्ञा' है और पाश्चात्य-मनोविज्ञान उसे ही मूल-प्रवृत्ति कहता है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, इसलिए चिन्तन और मनन करना उसका स्वभाव है। चिन्तन-मनन की योग्यता से ही आचरण में विवेकशीलता प्रकट होती है। विवेकपूर्ण आचरण में ही मानव-जीवन की महत्ता है। यों तो आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि सामान्य प्रवृत्तियाँ मनुष्य और पशु सबमें होती हैं, किन्तु अपनी विवेक-शक्ति के कारण ही मनुष्य उचित या अनुचित का भेद कर सकता है। ज्ञान न्यूनाधिक रूप में एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में होता है, फिर भी संज्ञी-प्राणियों में विवेक-शक्ति स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इस प्रकार, आहार आदि की मूल-प्रवृत्तियों के साथ मनुष्य में विवेकशीलता है। यही कारण है कि जैनदर्शन संज्ञा में विवेक और वासना -दोनों को स्वीकार करता है।
प्राणी-जगत् में आसक्ति या आकांक्षा का मूल कारण परिग्रह-संज्ञा है। परिग्रह-संज्ञा के कारण ही जीव सुख की प्राप्ति का और दुःख की निवृत्ति का प्रयत्न करते हैं। ‘सुख की प्राप्ति की चाह ही प्राणी-व्यवहार की प्रेरक है। चींटी रहने के लिए मिट्टी का टीला बनाती है, तो चूहे, साँप, छडूंदर आदि बिल बनाते हैं, जंगली पशु गुफाओं और कंदराओं में अपने रहने के लिए जगह खोजते हैं और मनुष्य अपने लिए मकान एवं बंगलों का निर्माण करते हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि प्राणीमात्र की यह इच्छा होती है कि वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सुखपूर्वक रहे। वे घर इसलिए भी बनाते हैं कि शीत, उष्ण एवं वर्षाकाल में वे सुरक्षित रह सकें, या फिर कोई बलवान प्राणी उन पर आक्रमण करे, तो वे अपने को. सुरक्षित रख सकें। इस भय के कारण भी वे अपने लिए अनुकूल जगह की खोज करते हैं। आहार आदि चार संज्ञाएँ व्यक्त या दृश्य हैं, परन्तु उनका मूल तो व्यक्ति की चेतना में होता है, जिसे अवचेतन या अचेतन मन कहा जाता है। वही व्यक्ति की जीवन-शैली को सतत दिशा देता रहता है। क्रोधादि कषायों एवं नोकषायों से सम्बन्धित जो मानसिक-संज्ञाएँ हैं, वे ही कर्मों के बंध का मूल कारण हैं। प्राणी विषय-कषायों में पड़कर भवभ्रमण को बढ़ाता है एवं
- 'आहार निद्रा भय मैथनं च सामान्यमेतद पशुभिः नराणाम।
ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।। - धर्म का मर्म, पृ. 38
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