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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 1. लोभ संग्रह करने की वृत्ति लोभ है । - 2. इच्छा इष्ट-प्राप्ति की भावना, अभिलाषा इच्छा है। इच्छा का संबंध किसी वस्तु या विषय से होता है। वह व्यक्ति को पर से जोड़ती है । परद्रव्यों की चाह ही इच्छा है, तीन लोक को पाने की भावना इच्छा है। 804 3. मूर्च्छा संरक्षण में होने वाला - 4. कांक्षा अप्राप्त पदार्थ की आशंसा, जो नहीं है, भविष्य में उसे पाने की इच्छा कांक्षा है। 806 कांक्षा और इच्छा में सूक्ष्म अन्तर यही है कि कांक्षा want है, तो इच्छा will है। सूक्ष्म दृष्टि से कहें, तो आकांक्षा इच्छा की जनक है । 804 305 806 मोहनीयकर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली 5. गृद्धि प्राप्त पदार्थ में होने वाली आसक्ति, प्राप्त इष्ट वस्तुओं में अभिरक्षण की प्रवृत्ति गृद्धि कहलाती है । दूसरे शब्दों में कहें, तो अपनी वस्तु में आसक्ति रखना गृद्धि है । तीव्र संग्रह - वृत्ति मूर्च्छा कहलाती है, या पदार्थ के अनुबंध, प्रकृष्ट मोहवृत्ति मूर्च्छा है। 6. तृष्णा प्राप्त पदार्थ का व्यय न हो - इस प्रकार की इच्छा तृष्णा है। जो वस्तु अपने अधिकार में है, उस वस्तु के प्रति व्यय न करने की इच्छा तृष्णा है। — Jain Education International 373 7. भिध्या विषयों के प्रति होने वाली सघन एकाग्रता, अर्थात् इष्ट वस्तु पर अपनी दृष्टि सदा जमाए रखना । वह कहीं इधर-उधर न चली जाए और कोई ले न जाए, इस प्रकार की इच्छा ही भिध्या है । - 8. अभिध्या विषयों के प्रति होने वाली विरल एकाग्रता, चंचलता या निश्चय से डिग जाना । - इच्छाभिलाषस्त्रैलोक्यविषयः । - तत्त्वार्थसूत्र भाष्यवृत्ति - 8 / 10 मूर्च्छा प्रकर्षप्राप्ता मोहवृद्धिः । - तत्त्वार्थसूत्र भाष्यवृत्ति - 8 /10 भविष्यत्कालोपादानविषयाकांक्षा 1 वही For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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