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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
समस्त शास्त्रों के परमार्थ का मन्थन कर यह कह सकते हैं कि साधक को लोभ को नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।
लोभ के विभिन्न रूप
लोभ - प्रवृत्ति व्यक्ति की इच्छाओं और तृष्णाओं पर आश्रित होती है । जितनी अधिक लोभ की प्रवृत्ति व्यक्ति के अन्तरंग में व्याप्त होती है, उसकी पूर्ति के लिए वह निरन्तर उद्यम करता है। चाहे वह उद्यम उचित हो या अनुचित, सत्य हो या असत्य, सम्यक् हो या असम्यक्, उन सबकी चिन्ता किए बिना अपनी लोभप्रवृत्ति की पूर्ति के लिए वह प्रयत्नशील दिखाई देता है।
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वस्तुतः, पांचों इन्द्रियों के विषय एवं मान - कषाय जब पुष्ट होते हैं, तो लोभ अपने पाँव जमाना प्रारंभ कर देता है। वस्तु-विनिमय का एक साधन धन है और विषयभोग के साधनों की प्राप्ति धन द्वारा होती है, अतः व्यक्ति अपनी लोभ - प्रवृत्ति की पूर्ति के लिए रात-दिन दौड़ लगाता है, वहाँ उसकी आवश्यकताएं गौण होकर लोभ - प्रवृत्ति प्रमुख हो जाती है। भगवतीसूत्र में लोभ के सोलह पर्यायवाची शब्दों की तथा समवायांगसूत्र में चौदह पर्यायवाची की चर्चा की गई है।
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समवायांगसूत्र में लोभ के निम्न चौदह पर्याय बताए हैं लोभ, इच्छा, मूर्च्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नन्दि एवं राग ।
भगवतीसूत्र में इन चौदह पर्यायों के अतिरिक्त तीन अन्य पर्याय भी दिए हैं जो इस प्रकार हैं- आशंसन, प्रार्थन, लालपन । 'समवायांगसूत्र' में नंदी एवं राग को भिन्न-भिन्न रूपों में परिगणित किया गया है एवं 'भगवतीसूत्र' में नंदीराग को एक ही पर्यायवाची बताया गया है।
भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरि वृत्ति के अनुसार इन पर्यायवाचियों की व्याख्या निम्न है
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802 अहं भंते । लोभे इच्छा, मुच्छा, कांखा, गेही, तण्हा, विज्झा, अभिज्झा, आसासणया, पत्थणया, लालप्पणया, कामासा, भोगासा, जीवियासा, मरणासा, नंदिरागे ...। - भगवतीसूत्र, श. 12, उ. 5,
समवायांगसूत्र 52, सूत्र 1
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सूत्र 106
लोभे इच्छा मुच्छा कांखा
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