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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 371 फूट डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। लोभ के कारण मनुष्य मालिक के आगे नट की तरह नाचता है, उसका प्रेमभाजन बनने का नाटक करता है और स्वार्थ सिद्ध होने पर उस ओर देखना भी पसंद नहीं करता। स्थानांगसूत्र में चार स्थान ऐसे हैं, जो कभी नहीं भरते, अर्थात् पूर्ण नहीं होते, हमेशा अपूर्ण ही रहते हैं, जैसे – समुद्र, श्मशान, पेट और तृष्णा। __ 1. समुद्र - समुद्र में अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं, फिर भी समुद्र कभी पूरा नहीं भरता, उसमें फिर भी नदियों का जल समा लेने की क्षमता बनी रहती है। 2. श्मशान - श्मशान में करोड़ों बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष के शव जलाए जाते हैं, किन्तु फिर भी वह खाली ही रहता है। 3. पेट - पेट में सुबह, दोपहर और शाम कुछ-न-कुछ डालते ही रहते हैं, फिर भी वह खाली-का-खाली ही रहता है। ___4. तृष्णा - तृष्णा एक विराट गड्ढा है, उसे सुमेरु पर्वत से भी नहीं भरा जा सकता। वह हमेशा खाली ही रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है -"सोने एवं चाँदी के कैलाश पर्वत की तरह असंख्य पर्वत भी किसी लोभी मनुष्य को दे दिए जाएं, तो भी उसके लिए तो वे अपर्याप्त ही होंगे, क्योंकि इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त हैं। 801 लोभाविष्ट प्राणी धनार्जन के अनेक तरीके अपनाता है। वह सामग्री में मिलावट करता है, तौल-माप में गड़बड़ी करता है, यदि नौकरी पर है, तो रिश्वत लेकर अनियमित कार्य भी कर देता है। अधिक धन के लालच में तस्करी, हत्या आदि घृणित कार्य भी नहीं छोड़ता। एक बार जिसके मन में लोभ बस जाता है; समझो वह दुर्गुणों के दलदल में फँसता ही चला जाता है। लोभी व्यक्ति कम देकर अधिक लेना चाहता है। उसके अन्दर से आत्मीयता एवं करुणा समाप्त हो जाती है, फिर भी लोभ का अंश कम नहीं होता। यदि लोभ छोड़ दिया गया है, तो तप आदि की साधना का क्या प्रयोजन और अगर लोभ नहीं छोड़ा है, तो भी तप से क्या प्रयोजन ? 801 सुवण्ण-रूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु कैलाससमा असंख्या। - नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।।- उत्तराध्ययनसूत्र-9/48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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