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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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आचारांगसूत्र में वर्णन है788 – सुख की कामना करने वाला लोभी बार-बार दुःख को प्राप्त करता है।
प्रशमरति में789 लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग बताया है।
सूत्रकृतांग में 790 उल्लेख है - यह मेरा है, वह मेरा है, इस ममत्वबुद्धि के कारण ही बाल जीव विलुप्त होते हैं। आगे कहा है - यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्फल भोगना पड़ता है, क्योंकि लोभ मुक्ति-मार्ग का बाधक है।
__ ज्ञानार्णव में लोभ को अनर्थ का मूल तथा पाप का बाप कहा गया. है। लोभ से पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बन्धु (हितैषी), वृद्ध, स्त्री, बालक तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादिकों को भी निःशंकता से मारकर धन को ग्रहण करता है। 193
मनुष्य तब तक ही मित्रता का पालन करता है, चारित्र-बल में वृद्धि करता है, आश्रितों का सम्यक रीति से पोषण करता है, जब तक वह इस लोभ के वशीभूत न हो, क्योंकि लोभ से ग्रस्त व्यक्ति को कुछ भान ही नहीं होता। वह अपनी मस्ती में मस्त बना रहता है।
चाणक्यनीति में कहा है - "एक जन्म से अन्धा होता है, उसे दिखाई नहीं देता, कामान्ध को कुछ भी नहीं दिखता, जो नशा करके मदोन्मत्त हो जाए, उसे भी कुछ दिखाई नहीं देता और जो किसी स्वार्थ के
788 सुहट्ठी लालप्पभाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेत.... । –आचारांगसूत्र, अ.2, उ.6,
सूत्र 151 789 सर्व विनाशाश्रायिण ......... | - प्रशमरति, गाथा 29 790 ममाई लुप्पई बाले ............ | – सूत्रकृतांग- 1/1/1/4
अन्ने हरति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चती - वही - 1/9/4 इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू। - स्थानांगसूत्र- 6/3 स्वामिगुरूबन्धुवृद्धनबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन्। व्यापाद्य विगतरांको लोभा” वित्तमादत्ते।। - ज्ञानार्णव, सर्ग 9, गाथा 70
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