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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
बौद्धदर्शन में भी बावन चैतसिक-धर्मों की चर्चा की गई है। चैतसिक-धर्म वे तथ्य हैं, जो चित्त की प्रवृत्ति के हेतु हैं । उनमें भी लोभ, द्वेष और मोह को अकुशल चित्त के प्रेरक कहा गया है।
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गीता में कहा गया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवासना के लिए प्रेरित करता है। कहा गया है - "आसक्ति के बन्धन में बंधा हुआ व्यक्ति कामभोग की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक अर्थ-संग्रह करता है। "785 यहाँ कामभोग की लालसा का अर्थ लोभवृत्ति से है। गीता के अनुसार, आसक्ति और लोभ नरक का कारण हैं । कामभोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में जन्म लेता है । '
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अतः, जैनदर्शन में वर्णित लोभसंज्ञा, बौद्धदर्शन का लोभ नामक चैतसिक-धर्म, गीता की आसक्ति और मनोविज्ञान की संग्रहवृत्ति में नाम से चाहे असमानता दिखाई देती है, परन्तु अर्थ की दृष्टि से ये सभी एकरूप हैं ।
लोभ का स्वरूप एवं लक्षण
लोभ, अर्थात् लालच का अर्थ अधिक पाने की लालसा है। यह लालसा व्यक्ति में अनेक दुर्गुणों को जन्म देती है। जब लोभ का भूत मन में सवार हो जाता है, तब व्यक्ति कर्त्तव्याकर्त्तव्य, हिताहित, अच्छाई-बुराई, न्याय-अन्याय एवं सत्यासत्य को भी भूल जाता है। उसका विवेक कुंठित हो जाता है, क्योंकि उसका एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक लाभ कमाना ही होता है, चाहे वह उचित तरीके से हो, या अनुचित तरीके से । उसका सारा ध्यान लाभ कमाने में ही लगा रहता है। इस लोभ के कारण वह भूख-प्यास तक की भी परवाह नहीं करता है ।
स्थानांगसूत्र में 787 लोभ को आमिषावर्त्त कहा गया है। जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है ।
785 गीता - 16/12
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वही - 16/16 आमिसावतसमाणे लोभे
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|- स्थानांगसूत्र, 4, उ.4, सूत्र 653
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