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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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लोभ कहा गया है। ” लोभ एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसके वशीभूत होकर पापों के दलदल में पांव रखने के लिए भी व्यक्ति तैयार हो जाता है।
लोभ-संज्ञा
'लोभ के उदय से चित्त में पदार्थों की प्राप्ति के लिए जो वासना उत्पन्न होती है, वही लोभ - संज्ञा है। 778
'लोभ वेदनीयकर्म के उदय से सचिताचित पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा है, जो कषाय के उदय के कारण उत्पन्न होती है। इसे ही लोभसंज्ञा कहते हैं।"" प्रज्ञापनासूत्र में भी सचिताचित वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा को लोभ-संज्ञा कहा गया है। भगवतीसूत्र में लालसापूर्वक द्रव्य के ग्रहण और संग्रह की अभिलाषा को लोभसंज्ञा कहा गया है। 781
प्रवचनसारोद्धार में 'लालसा रखते हुए सचित या अचित द्रव्यों की प्रार्थना करना लोभ-संज्ञा है, जो लोककषायजन्य है। 782
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अतः, स्पष्ट है कि लोभमोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होनेवाली तृष्णा, इच्छा, लालसा लोभसंज्ञा कहलाती है । जीव की लालची मनःस्थिति को भी लोभ-संज्ञा कहते हैं । पाश्चात्य - मनोवैज्ञानिक मेकड्यूगल ने जिन चौदह मूलप्रवृत्तियों की चर्चा की, उनमें संग्रहवृत्ति के रूप में लोभ का भी समावेश कर लिया गया, क्योंकि संग्रहवृत्ति लोभभावना के कारण ही संभव हो सकती है। जितनी लोभ की प्रवृत्ति बढ़ेगी, संग्रह की वृत्ति उतनी ही अधिक बढ़ती चली जाएगी ।
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777 गर्हा काङ्क्षा लोभः । - धवला - 1/1
लोभोदयात्प्रधानभवकारणाभिएवंगपूर्विकासचित्तेतरद्रव्योत्पादनाक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति । - अभिधानराजेन्द्रकोश,
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भाग–6, पृ. 755
लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन लोभोदयाल्लोभसत्तवान्विता सचित्तेतद्रव्यप्रार्थनैव संज्ञायतेऽनयेति लोभसंज्ञा । - स्थानांगसूत्र10/1051
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सचित्द्रव्यप्रार्थनायाम् - प्रज्ञापना- 8/725
781
भगवतीसूत्र, भाग - 2, आचार्य महाप्रज्ञ, श.7, उ.8,
782 प्रवचनसारोद्धार, सा. हेमप्रभाश्री, द्वार 146, गाथा 924, पृ. 80
783
दण्डकप्रकरण, गाथा 12
784 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल
जैन, पृ.462
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