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________________ 368 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व लोभ से अन्धा हो जाता है, उसे भी किसी काम में कोई दोष दिखाई नहीं देता ।" #794 हितोपदेश में लोभ को सब पापों की जड़ कहा गया है- "लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से ही कामना उत्पन्न होती है, लोभ से ही मोह पैदा होता है तथा लोभ से ही नाश होता है, इसलिए लोभ को पाप का हेतु (कारण) समझा गया है ।" #795 796 श्रीमद्भगवद्गीता में काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार बताया गया है, जो आत्मा को अधोगति प्रदान करते हैं, अत: इन तीनों का ही त्याग करना चाहिए ।' लोभ के स्वरूप को बतलाते हुए हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में स्पष्ट कहा है- "जैसे लोहा आदि संब धातुओं का उत्पत्तिस्थान खान है, वैसे ही प्राणातिपात आदि समस्त दोषों की खान लोभ है। यह समस्त गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है, आफत (दुःख) रूपी बेलों का कन्द (मूल) है। वस्तुतः, लोभ धर्म-अर्थ-काम और मोक्षरूपी पुरुषार्थों में बाधक है, 797 अतः लोभ दुर्जेय है।. जैसे सभी पापों में हिंसा बड़ा पाप है, सभी कर्मों में मिथ्यात्वं महान् है और समस्त रोगों में क्षयरोग भयानक है, वैसे ही सब अवगुणों में लोभ महान् अवगुण है। वस्तुतः, ऐसा कहते हैं कि लोभ पापों का मूल है। लोभी व्यक्ति को सम्पूर्ण संसार की सम्पत्ति भी क्यों न मिल जाए, फिर भी उसकी तृप्ति नहीं होती । वह सदैव अतृप्त ही बना रहता है। निर्धन मनुष्य सौ रुपए की अभिलाषा करता है, सौ पाने वाला हजार की इच्छा करता है और हजार रुपयों का स्वामी लाख रुपए पाना चाहता है । लक्षाधिपति करोड़ की लालसा करता है और कोटिपति राजा बनने का स्वप्न देखता है, राजा को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार होती है, 794 न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मत्तो, ह्यर्थी दोषान् न पश्यति । । लोभात्क्रोधः प्रभवति, लोभात्कामः प्रजायते । लोभान्मोहश्च नाशश्च, लोभः पापस्य कारणम् ।। त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथां लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् । । आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थबाधकः । । 795 796 797 Jain Education International चाणक्यनीति- 6/7 हितोपदेशमित्र 26 गीता - 16/21 योगशास्त्र-4/18 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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