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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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पर शास्त्र कहते हैं – रुक्मी साध्वी का पाप माफ नहीं हुआ। माया ने उस पाप को इतना गहरा कर दिया कि जन्म-जन्मांतर में उसे उखाड़ना कठिन हो गया।
नट, धूर्त और वैद्य के साथ कपट करने से ईंट का जवाब पत्थर से मिलेगा। डॉक्टर या वैद्य को यदि रोग का खुलासा ठीक तरह से नहीं करेंगे, तो वे चिकित्सा भी ठीक प्रकार से नहीं कर पाएंगे। इसी प्रकार, बहुश्रुत विद्वान्, ज्ञानी के सामने भी अपनी शंकाएं छिपा लेंगे, तो अज्ञानता किस प्रकार से दूर होगी ? इस प्रकार की माया स्वयं को नुकसान पहुंचाती है।
8. माया-मृषावाद एक पाप है- अठारह पापस्थानकों में माया एवं
मृषावाद -दोनों स्वतंत्र भेद- रूप में वर्णित हैं। दोनों का संयुक्त रूप माया-मृषावाद भी एक पापस्थानक है। माया के बिना असत्य भाषण संभव नहीं होता है। असत्य की जननी ही माया है। यह पाप-स्थान मायावी ही सेवन कर सकता है। असत्य को सत्य रूप दे देना, पाप को छिपा लेना, गलत होते हुए भी अच्छे होने का ढोंग करना माया मृषावादी' का कार्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है - माया सहस्रों सत्य को नष्ट कर डालती है। माया-मृषावाद से लोभ बढ़ता है, अतः इससे बचना चाहिए।
मायावी अविश्वासपात्र होता है -
मायाचार से युक्त व्यक्ति मीठा बोलकर लोगों का विश्वास जीतते हैं, फिर पीठ में छुरा घोंप देते हैं। जैसे पहाड़ दूर से कितने ही सुन्दर दिखाई देते हों, किन्तु निकट जाने पर बड़ी-बड़ी गुफाएँ, विशाल चट्टानें, कांटेदार सूखे पेड़, साँप, बिच्छ, सिंह, भालू आदि भयंकर वस्तुओं और हिंसक प्राणियों के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार चाणक्य ने कहा है - "अधिक शिष्टाचार शंका के योग्य होता है।"766 पहले जो व्यक्ति दूर-दूर रहता था, सामने आने पर नमस्कार तक नहीं करता था, वह यदि चरण
765 उत्तराध्ययनसूत्र- 32/30 764 दशवैकालिक-8/37
उत्तराध्ययनसूत्र- 19/45 766 अत्युपचार: शडिकतव्य – चाणक्यनीति
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