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________________ 358 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व एवं रुक्मणी साध्वी के उदाहरण प्राप्त होते हैं। उनकी सामान्य-सी माया भी उनके भवभ्रमण का हेतु बन गई। लक्ष्मणा साध्वी61 - लक्ष्मणा साध्वी ने एक बार चक्रवाक एवं चक्रवाकी की प्रणय-क्रिया को कुछ क्षणों तक ध्यान से देखा। उनके हृदय में वासना के सुप्त संस्कार जाग्रत हो गए। उनका मन विकार-भावों में बहता रहा। कुछ देर में विचारों से उबरने के बाद उनके मन को एक झटका लगा – अहो ! मैं कहाँ खो गई थी। संयमी जीवन में ऐसा विचार क्या शोभास्पद है ? मुझसे कितना जघन्य अपराध हुआ है। क्यों न मैं प्रायश्चित्त की अग्नि में आत्मदेव को पवित्र कर लूँ ? गुरु-चरणों में विनम्र अंजलिबद्ध प्रणाम के उपरान्त लक्ष्मणा ने मन्द स्वर में प्रश्न किया - "हे पूज्या! किसी पक्षी-युगल की वासनात्मक-क्रिया. देखकर यदि विकार–परिणाम आएं, तो क्या प्रायश्चित्त करना चाहिए ?" गुरुजी ने गंभीरता से प्रतिप्रश्न किया - "यह प्रायश्चित्त किसे लेना है ?" लक्ष्मणा के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला उठी। पाप को स्वीकार करने का साहस वह जुटा नहीं पाई। सहसा मुख से बोल फूट पड़े -“किसी ने यह प्रश्न करने के लिए मुझे कहा था।" बस, सब समाप्त हो गया। माया ने प्रायश्चित्त करने की भावना के उपरान्त भी प्रायश्चित्त नहीं करने दिया। उसकी दीर्घकालिक तपस्या भी पाप के दाग को धो नहीं पाई और वह माया संसार-परिभ्रमण का कारण बन गई। रुक्मी762 – कई श्रमण-श्रमणियाँ आचार्यश्री से अपने पापों की आलोचनारूप प्रायश्चित्त ग्रहण कर रहे थे। अचानक आचार्यश्री ने रुक्मी साध्वी पर दृष्टिपात किया और पूछा - "हे आर्या! आपको प्रायश्चित्त लेना है ?" रूक्मी ने सहज-सौम्यता से कहा – “नहीं भगवन्!” पर आचार्यश्री ने कहा – “अतीत में जब तुम राजकुमारी थी, तो तुमने एक राजकुमार को विकारमय दृष्टि से देखा था।” रुक्मी चौंक पड़ी - 'ओ हो! क्या वही राजकुमार ये आचार्य हैं ?' उसके पाँवों तले धरती खिसकने लगी। माया ने अपना आँचल फैलाया, क्योंकि रुक्मी साध्वी के अखण्ड ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-सुदूर तक व्याप्त थी। रुक्मी ने सहज होने का प्रयास करते हुए कहा - "भगवन्! वह कटाक्ष मात्र आपकी परीक्षा हेतु था।” आचार्य मौन हो गए, 761 कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 32 कथा-संग्रह 762 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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