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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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देता है और अपने अहंकार को पुष्ट करता है। यह सिलसिला कभी रुकता नहीं है। यह रुकता तभी है, जब उसकी पोल खुलती है, या पकड़ा जाता है। वर्तमान समय में भ्रष्ट नेता देश के साथ मायाचार और भ्रष्टाचार के माध्यम से देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं और अपने-आपको महान् समझ रहे हैं।
माया साधना में बाधक है- जिस कार्य से दूसरों का दुःख बढ़ता हो, वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म वह होता है, जिससे अपना भी और दूसरों का भी सुख बढ़े और दुःख घटे। दगा किसी का सगा नहीं होता। वह जीवन-साधना में बाधक बनता है। छल करने वालों का मन मैला हो जाता है। जिस प्रकार गंदले जल में प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार मैले मन में आत्मा के दर्शन नहीं हो सकते, इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने मन को निर्मल करने की बात कही है। तन से आप पद्मासन लगाकर बैठ गए, परन्तु मन यदि भटकता रहा, तो साधना कैसे सफल हो सकती है ? यों तो बगुला भी एक टांग पर खड़ा होकर एकाग्रता से ध्यान करता है, परन्तु वह वास्तव में उसका ध्यान नहीं, दुर्ध्यान है। उसका सारा ध्यान सिर्फ मछली पकड़ने के लिए है, इसलिए यह धर्म नहीं हो सकता -
तन का तो आसन जमा, मन के कटे न पाँख। बगुला तो ध्यानी बना, पर मछली पर आँख ।।59
7. माया से स्वयं को भी हानि-नीतिकारों का कथन है कि
आचार्य, नट, धूर्त, वैद्य और बहुश्रुत -इनसे कुटिलता, मायाचार कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि इनके साथ कुटिलता करने पर हमारी अपनी ही हानि होती है।
आचार्य के सामने यदि अपने अपराध हम सरलतापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं, तो उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि हो सकती है, परन्तु यदि अपराध छिपा लेते हैं, तो भीतर-ही-भीतर अपराध करने का शल्य बना रहेगा और आत्मशुद्धि कभी नहीं होगी। शास्त्रों में लक्ष्मणा साध्वी
759 जयन्त प्रवचन परिमल, पृ. 90 700 आचार्ये च नटे धूर्ते, वैद्य-वेश्या-बहुश्रुते, कौटिल्यं नैव कर्त्तव्यम् ....... - नीतिशास्त्र
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