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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व छूने में लगा रहता है, तो समझ लेना चाहिए कि अवश्य कोई बड़ा धोखा देने वाला है। नमस्कार नमस्कार में अंतर होता है, सभी नमस्कार समान नहीं होते, क्योंकि धोखेबाज व्यक्ति दोगुना झुकता है, जैसे- चीता, चोर और कमान । 360 नमन - नमन में फर्क है, सब समान मत मान । दगाबाज दुगुना नमें, चीता, चोर, कमान । । यह माया का फैलाव सारे संसार में समाया हुआ है। अशुभाशय से सत्य को असत्यं बताना, छल-कपट करना, अपने अकृत्य को अन्य पर आरोपित करना, तपस्वी न होते हुए भी अपने को तपस्वी बताना सभी माया है। यह सत्य है कि माया कभी फलीभूत नहीं हो सकती है। दूसरों को धोखा देना स्वयं को बहुत बड़ा धोखा देना है, इसलिए जीवन के उत्थान के लिए हमारा जीवन सम्यक रूप से निश्छल और सरल होना चाहिए। हमारी प्रीति और कृत्य निःस्वार्थ होने चाहिए। जिस दिन यह सरलता और सहजता हमारे हृदय में आ जाएगी, उसी दिन से हमारा जीवन मायारहित होकर, जीवन में धर्म का आनंद बरसने लगेगा। इस आनंद को प्राप्त करने के लिए माया पर विजय प्राप्त कैसे करें, इसकी चर्चा हम आगे करेंगे । माया पर विजय कैसे ? माया - विजय के निम्न उपाय हैं। .. 767 1. " सोही उज्जूय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई " उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ऋजुभूत - सरल व्यक्ति की ही शुद्धि होती है और सरल हृदय में ही धर्मरूपी पवित्र वस्तु ठहरती है - ऐसा विचार कर हृदय को सरल बनाने का प्रयत्न निरन्तर करते रहना चाहिए । 767 सरलता धर्म की जननी है। सरलता बिना मुक्ति संभव नहीं है। सुई में प्रवेश लेने हेतु धागे को सीधा होना होता है, सरल, नरम साफ-सुथरी जमीन में ही बीज बोया जाता है, उसी प्रकार सरल हृदय में सम्यकत्वरूपी बीज - वपन होता है । उत्तराध्ययनसूत्र Jain Education International - 3/12 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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