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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
3. प्रत्याख्यानी-माया (तीव्र कपटाचार)- प्रत्याख्यानी-माया
गोमूत्रिका के समान कही गई है, वह धारा वक्र और टेढ़ी-मेढ़ी होती है, परन्तु हवा से उड़ती मिट्टी अथवा पिछले पांव से उड़ती धूल से जिस प्रकार वह वक्रता शीघ्र नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी माया से युक्त जीवात्मा की वक्रता भी कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाती है।
4. संज्वलन-माया (अल्प कपटाचार)-संज्वलन माया बांस की
छाल के. समान है। जिस प्रकार बांस की छाल मुड़ जाती है और सीधी भी हो जाती है, उसी प्रकार संज्वलन मायायुक्त जीव शीघ्र ही माया या प्रपंच का त्याग कर देता है और सरलता धारण कर लेता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - "ऋजुभूत-सरल व्यक्ति की ही शुद्धि होती है और सरल हृदय में ही धर्मरूपी पवित्र वस्तु ठहरती है -ऐसा विचार कर हृदय को सरल बनाने का प्रयत्न निरन्तर करते रहना चाहिए।"746 व्यवहार में दूसरों को ठगना निश्चय में अपने-आपको ठगना है। छिपकर किए जाने वाले पाप सर्वज्ञ तो जानते ही हैं, प्रकृति भी उसका बदला लेती है - यह सोचकर मायारूपी पाप से बचना चाहिए।
मायोत्पत्ति के कारण
स्थानांगसूत्र'7 में माया की उत्पत्ति के चार प्रमुख कारण बताए गए हैं -
1. क्षेत्र के कारण - खेत, भूमि आदि को प्राप्त करने के लिए
कूटनीति का प्रयोग करना। 2. वास्तु के कारण - घर, दुकान, फर्नीचर आदि कारणों से माया
उत्पन्न होना। 3. शरीर के कारण - कुरूपता, रुग्णता आदि कारणों से भी मायावी
व्यक्ति द्वारा मुखौटा लगाकर अपने आपको सुंदर या बीमार दिखाने का बहाना कर माया का सेवन करना।
740 सोही उज्जूय भयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। - उत्तराध्ययनसूत्र-3/12 147 चउहिं ठाणेहिं माणुप्पत्ती सिता- तं जहा- खेतं पडुच्चा।- स्थानांगसूत्र- 4/1/81
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