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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
7. कल्क- हिंसादि पाप-भावों से ठगना। 8. कुरूक- निन्दित व्यवहार करना। 9. दम्भ- शक्ति के अभाव में स्वयं को शक्तिमान् मानना। 10. कूट- असत्य को सत्य बताना। 11. जिम्ह- ठगी के अभिप्राय से कुटिलता का आलम्बन । 12. किल्विषि– माया प्रेरित होकर किल्विषी जैसी निम्न प्रवृत्ति
करना। 13. अनाचरणता- ठगने के लिए विविध क्रियाएं करना।
भगवतीसूत्र में अनाचरण के स्थान पर आदरणता शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ अनिच्छित कार्य भी अपनाना
है।
14. गूहनता- मुखौटा लगाकर ठगना। 15. वंचनता- छल-प्रपंच करना। 16. परिकुंचनता/प्रतिकुंचनता- किसी के सहज उच्चारित __ शब्दों का खण्डन करना, विपरीत अर्थ लगाना, या अनर्थ
करना।
17. सातियोग- उत्तम पदार्थ में हीन पदार्थ का संयोग करना,
जिसे वर्तमान भाषा में मिलावट कहा जाता है।
कसायपाहड44 में भी माया के ग्यारह पर्यायों में से कुछ समवायांग के समान हैं एवं कुछ भिन्न हैं। भिन्न पर्यायवाची नाम निम्न हैं -
1. अनृजुता- वक्रतापूर्वक वचनों को कहना। 2. ग्रहण- अन्य के मनोनुकूल पदार्थों को स्वयं ग्रहण कर लेना। 3. मनोज्ञमार्गण- किसी के गुप्त अभिप्राय को जानने की चेष्टा
करना।
१ कषायपाहुड- 9/88
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