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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 349 कारीगर और चांडाल अपने पुरखों से प्रचलित व्यापार-धन्धे से अपनी आजीविका चलाते हैं, मगर छल से शपथ खाकर अच्छे-अच्छे सज्जनों को ठग लेते हैं। • क्रूर व्यन्तरदेव, अर्थात् भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदि मनुष्यों और पशुओं को प्रमादी जानकर प्रायः अनेक प्रकार से हैरान करते हैं। • ठगने में चतुर शिकारी मायावी-जाल बिछाकर थोड़े- से मांस और दाने का लोभ देकर प्राणियों को पकड़ते हैं। माया के बहुतेरे रंग और ढंग होते हैं। समवायांगसूत्र में माया के सत्रह पर्यायवाची बताए हैं।40 | ये हैं – माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, न्यवम, कल्क, कुरूक, दम्भ, कूट, जिम्ह, किल्विषिता, अनाचरणता, गूहनता, वंचनता, परिकुंचनता और सातियोग। । भगवतीसूत्र में माया के पन्द्रह समानार्थक नाम दिए गए हैं। 741 'समवायांगसूत्र' में दिए सत्रह पर्यायों में से दंभ एवं कूट को 'भगवतीसूत्र' में नहीं लिया गया है। 42 इन पर्यायों का अर्थ निम्नोक्त है - 1. माया- कपटाचार, माया का भाव उत्पन्न करने वाला कर्म। 2. उपधि- ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के निकट जाना। 3. निकृति- आदर-सत्कार से विश्वास जमाकर विश्वासघात करना। 4. वलय- वक्रतापूर्वक वचन और व्यवहार में वलय के समान . . वक्रता हो। 5. गहन- ठगने के लिए अत्यन्त गूढ़ भाषण करना। 6. न्यवम- नीचता का आश्रय लेकर ठगना। 14" माया उ वही नियडो वलए ..... - समवायांगसूत्र- 52/1 147 भगवतीसूत्र, श.12. उ.5, सूत्र 4 142 1 से 8, एवं 9 से 13 भगवतीसूत्र, श. 12, उ. 5, सूत्र 4 के हिन्दी अनुवाद से लिए गए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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