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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व है।730 सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आत्मा के कुटिल भाव को माया कहा गया राजवार्त्तिक में, 'दूसरों को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल आदि किए जाते हैं, वे माया हैं यह बताया गया है। ,731 345 धवला के अनुसार - ' अपने हृदय के विचारों को छुपाने की जो चेष्टा की जाती है, उसे माया कहते हैं। 732 अभिधानराजेन्द्रकोश में माया की जो अनेक परिभाषाएं दी गई हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं और वे माया के स्वरूप को स्पष्ट कर देती हैं 1. 'सर्वत्र स्ववीर्यनिगूहने 733 अर्थात्, सब जगह अपनी शक्ति को छिपाना माया है। आलस्य एवं बीमारी आदि का बहाना बनाकर सामर्थ्य होते हुए भी किसी कार्य को करने से इंकार कर देना माया है। आलस्य तो मनुष्य के शरीर में रहने वाला महान् शत्रु है। आलस्य हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः । । यह आलस्य ही हमें मायाप्रवृत्ति करने के लिए प्रेरित करता है और हमें मायावी बनाता है। वस्तुतः, कभी व्यक्ति में किसी कार्य को करने का सामर्थ्य नहीं होता है, तो वह आलस्य और बीमारी का बहाना बनाकर मायाचार करता है और अपनी शक्ति को छिपाता है। 2. शठतया मनोक्कायप्रवर्त्तने 734 " धूर्ततापूर्वक की गई मन-वचन - काया की प्रवृत्ति ही माया है । मन की प्रवृत्ति चिन्तन है, वचन की प्रवृत्ति भाषण है और काया की प्रवृत्ति विविध कार्यकलाप हैं। हर समय कोई-न-कोई प्रवृत्ति चलती ही रहती है, 730 731 आत्मनः कुटिलभावी मायाकृ । - सर्वार्थसिद्धि - 6 /16/334/2 परातिसंघानतयोपहितकौटिल्यप्रायः प्रणिधिर्माया .. । - राजवार्त्तिक - 8 / 9/5/574/31 732 स्वहृदयप्रच्छादार्थमनुष्ठानं माया । - धवला - 12 /4 733 अभिधानराजेन्द्रकोश भाग -6, पृ. 251 734 अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग-6, पृ. 251 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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