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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
परन्तु जब इस प्रवृत्ति में धूर्तता का मिश्रण हो जाता है, तब वह माया बन जाती है। व्यक्ति जब न्याय-अन्याय की परवाह न करके अपने अनुचित स्वार्थ की सिद्धि के लिए मन-वचन-काया की कपटरूप प्रवृत्ति करता है, तब वह मायावी कहलाता है।
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3. स्व - परव्यामोहोत्पादके वचसि
अपने को और दूसरों को भ्रम में डालने वाले कथन माया हैं। मोक्ष के लिए केवलज्ञान, केवलज्ञान के लिए कर्मक्षय और कर्मक्षय के लिए जिस त्याग, तप और कायोत्सर्ग- - ध्यान की साधना आवश्यक है, उससे बचने के लिए कुतर्क का सहारा लेकर मोक्ष के स्वरूप का ही खण्डन करने का प्रयास करते हुए कहना कि मोक्ष में अथवा सिद्धशिला पर ऐसा क्या है, जो देखने और जानने योग्य हो? यदि नहीं है, तो फिर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बनने से क्या लाभ ? सुख वहीं मिल सकता है, जहाँ सुख के साधन हों, फिल्म, टीवी, वीडियो, गेम्स, कवि सम्मेलन आदि मनोरंजन के साधन जो संसार में हैं, वे सिद्धशिला पर नहीं हैं, इस प्रकार जहाँ सुख के साधन ही नहीं हैं, वहाँ सुख कैसे हो सकता है ? जहाँ सुख नहीं, उस मोक्ष की प्राप्ति का प्रयत्न क्यों किया जाए ? इस प्रकार अपने को और दूसरों को भ्रम में डालने वाले, गुमराह करने वाले कथन करना माया है ।
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समयसार और शक्रस्तव में जिस 'सिद्धगति' नामक स्थान के लिए ध्रुव, अचल, अनुपम, शिव, अरुज, अनन्त, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति जैसे विशेषणों का प्रयोग किया गया हो, जहाँ स्थित विशुद्ध जीव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा अनन्त शाश्वत सुख का अनुभव करनेवाला हो, उसके विषय में ऐसी भ्रामक बातें करना माया है
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4. परवञ्चनाभिप्रायेण शरीराकारनेपथ्यमनोवाक्काय कौटिल्यकरणे
"दूसरों को ठगने की इच्छा से शरीर के आकार, वेशभूषा, मन, वचन, काया को कुटिल बनाना माया है ।"
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वही
736 दत्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गई पत्ते I
समयसार, गाथा - 1
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सिवमय लमरू अमणन्त मक्खयमव्वाबाहमपुणराविति सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं ।
पाठ
अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-6, पृ. 251
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शक्रस्तव
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