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________________ 344 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व नामक उपकर्मप्रकृति के उदय से असत्यवचनादिरूप जो क्रियाएं होती हैं, उन्हें माया नामक संज्ञा से अभिहित किया जाता है। 24 माया का स्वरूप - मुख्यतः, हृदय की वक्रता का नाम माया है। जैसे बंजरभूमि में बोया बीज निष्फल हो जाता है, मलिन चादर पर. चढ़ाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है और नमक लगे बर्तन में दूध विकृत हो जाता है; ठीक वैसे ही माया-बुद्धि से किया गया धर्म-कार्य भी सफल नहीं हो पाता है। अणगार-धर्मामृत में मायावी का स्वरूप इस प्रकार का बताया गया है -'जो मन में होता है, वह कहता नहीं है, जो कहता है, वह करता नहीं है, वह मायावी होता है। 25 आचारांगसूत्र में कहा गया है -मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है, उसका संसार–परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता। कितनी भी साधना हो, पर यदि माया-रूपी मनोभाव कृश नहीं हुए, तो सम्पूर्ण साधना निरर्थक है। 26 वस्तुतः, मायावी शहद लगी छुरी के समान होता है, जो मृदु व्यवहार से विश्वास जगाकर विश्वासघात करता है। वह स्वार्थसिद्धि में चतुर, छल-कपट का आश्रय लेकर विश्वासघात करता है। क्रोध और मान तो खुलकर प्रहार करते हैं, परंतु माया छिपकर घात करती है। वह व्यक्ति की आध्यात्मिक- प्रगति में बाधा डालती है और उन्नति के मार्ग को अवरुद्ध करती है। माया गति को ही नहीं, माया सौभाग्य को भी नष्ट कर दुर्भाग्य को जन्म देती है।28 दूसरों के साथ माया करके हम थोड़ी देर के लिए थोड़ा-सा लाभ भले ही प्राप्त कर लें, परंतु सत्य बात मालूम होते ही भयंकर हानि उठाना पड़ती है। मित्रता का आधार विश्वास है और “माया इसी विश्वास को मिटाकर मित्रों की संख्या घटा देती है।"729 724 मायोदयेनाशुभसंकेतशादनृतसंभाषणादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति माया संज्ञा। - अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग 6/255 725 यो वाचा स्वमपि स्वान्तं ......। -धर्मामृत, अ 6, गाथा 19 माई पमाई पुण एइ गब्भं - आचारांगसूत्र-1/3/1 17 माया गइपडिग्घाओ। - उत्तराध्ययनसूत्र दुर्भाग्यजननी माया, माया दुर्गतिकारणम् ।। – विवेकविलास माया मित्ताणि नासेड। - दशवैकालिक- 8/38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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