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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 343 अध्याय-8 माया-संज्ञा Instinct of Deceity: भारतीय और पाश्चात्य-मनोविज्ञान में संज्ञा शारीरिकआवश्यकताओं एवं मनोभावों की वह मानसिक-संचेतना है, जो मानवीय व्यवहार की प्रेरक बनती है। जैनदर्शन संज्ञा शब्द को मूलप्रवृत्ति का समानार्थक मानता है। आहारादि चार मूल प्रवृत्तियाँ सभी जीवों में न्यूनाधिक रूप से विद्यमान हैं। ये मूलप्रवृत्तियाँ शरीरजन्य होने से सभी जीवों में पाई जाती हैं। केवली भगवान को छोड़कर जो शरीरधारी जीव हैं, उनमें ये मूलप्रवृत्तियाँ रहती हैं। जैनागमों में संज्ञा का वर्गीकरण अनेक प्रकार से मिलता है, जिनमें संज्ञा के दशविध वर्गीकरण 720 के अन्तर्गत आहारादि चार मूल संज्ञाओं के साथ-साथ क्रोध, मान, माया और लोभ –ये चार कषाय-रूप संज्ञाएँ और लोक एवं ओघ– संज्ञा प्रमुख रूप से उल्लेखित हैं। कषायरूप संज्ञाएं मानसिक विकारों के कारण उत्पन्न होती हैं और प्राणीय-व्यवहार की प्रेरक बनती हैं। 'माया' शब्द मा+या से बना है। 'या' का अर्थ 'जो' तथा 'मा' का अर्थ 'नहीं' है। इस प्रकार, जो नहीं है, उसको प्रस्तुत करना माया है। इसे दूसरे शब्दों में कपटाचार भी कहा जा सकता है। माया-संज्ञा से तात्पर्य कपटवृत्ति से है। मुख्यतः, हृदय की वक्रता का नाम माया है। "माया मोहनीयकर्म के उदय से अशुभ–अध्यवसायपूर्वक मिथ्याभाषण आदि रूप कुंटिल वाग्व्यापार की प्रवृत्ति को माया-संज्ञा कहते हैं। 721 प्रवचनसारोद्धार में कहा है .- मायाकषायजन्य, संक्लेशपूर्वक असत्यभाषण आदि करना माया-संज्ञा है। 22 जीव की माया-कपटरूप मनःस्थिति को माया-संज्ञा कहते हैं। 23 अभिधानराजेन्द्रकोश के अनुसार, मोहनीयकर्म के माया 720 प्रज्ञापनासूत्र- 8/725 वही- 8/725 प्रवचनसारोद्धार, भाग-2, द्वार-146, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ.80 दण्डकप्रकरण, गाथा-12 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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