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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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'चण्डरुद्राचार्य18 को कन्धे पर बैठाकर जंगल पार करते हुए नूतन मुनि ने गुरु के समस्त कर्कश वचनों एवं ताड़ना-तर्जना पर परमविनय रखा। उनके हृदय में एक भी असत् विकल्प उत्पन्न नहीं हुआ। मान-मर्दन होने पर और क्रोधादि मनोभावों का क्षय करते हुए मुनि ने केवलज्ञान का वरण किया।
द्वारिकाधीश श्रीकष्ण का प्रसिद्ध प्रसंग है - जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में सुदामा के आने पर भी विनम्र भाव से भावविभोर होकर श्रीकृष्ण पाँव धोने के लिए स्वयं बैठे। धूलि-धुसरित पाँवों का प्रक्षालन करने के लिए पानी लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, स्वयं के नेत्र-जल से ही पाद-प्रक्षालन कर दिया।
ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कंटक जाल लगे पुनि जोए, हाय महादुख पायो सखा तुम, आए, इतौ न कितै दिन खोए। देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करि कै करुणानिधि रोए, पानी परात को हाथ छुओ नहि, नैनन के जल सों पग धोए।।
सम्यग्दृष्टि से अधिक देश-विरत श्रावक एवं उससे अधिक संयत (मुनि) में 'मान' मनोभाव की मन्दता होती है। भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य चौदह हजार श्रमणों के नायक गौतम गणधर एक श्रावक से क्षमा याचना करने गए। क्षमा-प्रार्थना करने में अहंकार बाधक नहीं बना।
तन का झुकना ही विनय नहीं है, बल्कि मन का झुकना विनय है। आदर, सत्कार, मान, बड़ाई को छोड़ना बहुत दुष्कर है, किन्तु असंभव नहीं। यदि व्यक्ति मान के कारण होने वाली हानियों को समझे, तो इनको छोड़ सकता है। साधना में अहंकार जहर है, भले ही वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो। अहंकार के कारण किया गया जप, तप, सामायिक, स्वाध्याय और ज्ञान निष्फल हो जाता है, अतः हम अहंकार को छोड़ विनय को अपनाएँ। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है –'अपनी आत्मा का हित चाहता हुआ साधक अपने को विनय में स्थापित करे। 719 जैसे हवा से भरे फुटबाल को खेल के मैदान में चारों ओर से पैरों की मार खाना पड़ती है, उसी प्रकार अभिमान से भरे जीव को भी कर्म की मार खाना पड़ती है,
718 उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 29, गाथा 69 719 'विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो। -उत्तराध्ययनसूत्र- 1/6
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