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________________ 340 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व मा बहतु कोऽपि गर्व इह जगति पण्डितोऽहं चैव। आ सर्वज्ञो मतितः तरतमयोगेन मतिविभवाः।। 15 अर्थात, मैं पंडित हूँ -ऐसा गर्व कोई न करे, क्योंकि सर्वज्ञ के अलावा भी तरतम योग से मतियुक्त वैभववान् एक-से-बढ़कर-एक मिलेंगे, अतः ज्ञानमान्! बड़े-छोटे का मान त्यागने योग्य है। 7. आचारांगसूत्र में कहा है – “यह जीवात्मा अनेक बार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में, इस प्रकार विभिन्न गोत्रों में जन्म लेने से न कोई हीन होता है और न कोई महान्,"716 इसलिए ऊँच-नीच, गोत्र के अभिमान का त्याग करना चाहिए और सभी को समान दृष्टि से देखने से मान-भाव पर विजय पा सकते हैं। ____8. जमीन-जायदाद के स्वामित्व का गर्व किसका टिक पाया है ? "हसन्ति पृथ्वी नृपति नराणा..... | " पृथ्वी उन राजाओं, जागीरदारों पर हँसती हुई कहती है -"मैं कभी किसी के साथ गई नहीं, किन्तु मुझे मेरी-मेरी कहने वाले यहाँ सदा रहे नहीं। किसका गर्व ? और किसलिए गर्व ? ___9. मान-जय हेतु विनय-गुण धारण करना चाहिए। योगशास्त्र में कहा है – “दोषरूपी शाखाओं को विस्तृत करने वाले और गुणरूपी मूल को नीचे ले जाने वाले मानसरूपी वृक्ष को मार्दव नम्रतारूपी नदी के वेग से जड़सहित उखाड़ फेंकना चाहिए।" ___ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है – मान का प्रतिपक्षी गण विनय है। विनय के अनेक भेद हैं- लोकोपचार, अर्थात् माता-पिता का विनय करना। लोकोत्तर, अर्थात मोक्ष हेत से विनय करना। भय, अर्थलिप्सा, या कामभोग आदि से किया गया विनय (नमन) उत्तम विनय नहीं है। विनय सहज हो, हर परिस्थिति में हो, तभी वह विनय मान पर विजय प्राप्त करा सकता है। 715 पुष्प-पराग, मुनि श्री जयानन्दविजयजी, पृ. 156 716 से असइं उच्चागोह, असहं नीआगोए। ___नी हीणे, नो अइरित्ते...... || - आचारांगसूत्र- 1/2/3 717 उत्सर्पयन् दोषशाखा गुणमूलान्यधो नयन्। उन्मूलनीयो मानद्रुस्तन्मार्दव-सरित्प्लवैः ||-- योगशास्त्र- 4/14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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