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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
समान समझने का भाव जगता है। इसी प्रकार, मद का मर्दन करना ही मार्दव है, जो मद, मान, अहंकार के त्याग से ही संभव है। जैसा कि कहा गया है - "जो मनस्वी पुरुष, कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील आदि के विषय में थोड़ा भी मद नहीं करता है, उसके मार्दवधर्म होता है, " अथवा 'मृदोर्भावो मार्दवम्' अर्थात मृदुभाव का होना मार्दव है। मान - विजय के लिए मार्दव-धर्म का पालन सर्वश्रेष्ठ है ।
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4. स्वजन - परिजन आदि चेतन जगत् के संयोग में भी व्यक्ति अभिमान करता है । स्वजनों की योग्यता का गर्व होता है। पति के कमाऊ होने का गर्व पत्नी को, पत्नी की सुन्दरता का अभिमान पति को होता है । सन्तान की प्रतिभा का अहंकार माता - पिता करते हैं। संयोगों में मान की मनोवृत्ति होने पर अनित्य - भावना का चिन्तन करना चाहिए । संयोग कभी शाश्वत नहीं होता, संयोग का वियोग अवश्य होगा। सराय में आया पथिक जैसे प्रातः समय अपने गन्तव्य की ओर प्रयाण कर जाता है, संध्याकाल में वृक्ष पर आए पक्षी भोर होते ही दाना-पानी के लिए अपनी-अपनी दिशा में उड़ जाते हैं; उसी प्रकार आयुष्य क्षय होने पर सब जीव संयोग के धागे तोड़कर अगली गति में प्रस्थान कर देते हैं। संयोगों में अभिमान कैसा ?
5. धन-सम्पत्ति आदि यदि बहुतायत में मिली है, तो उसका उपयोग दूसरों की सेवा - सहायता में निःस्वार्थ भाव से करने से मान और अहंकार का भाव समाप्त होता दिखाई देता है ।
6. सभी प्राणियों को समान एवं आत्मवत् समझें। इससे मान की भावना समाप्त हो जाती है । जब सभी समान हैं, तो कौन छोटा एवं कौन बड़ा? मूल में आत्मा अनन्तज्ञान, दर्शन, आदि गुणों से युक्त है, फिर अल्प ज्ञानादि में अहंकार कैसा ? बाहुबलीजी को अहंकार के कारण एक साल तक घोर साधना करने पर भी केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, ज्यों ही बहनों के वचन सुन मानरूपी गज से नीचे उतरे, केवलज्ञान प्रकट हो गया। कहा गया है
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कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुद्सीवेसु गारवं किंचि जो णवि कुव्वदि समणो
मादव- धम्मं हवे तस्स ।
भगवती आराधना - 49 / 154
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